किशोर उपन्यास
अध्याय-तीन
किशोर उपन्यास
बच्चे राष्ट्र के भविष्य हैं’, ‘बाल-मन कच्ची मिट्टी की तरह
होता है। उसे जैसे संस्कार दिए जाएँगे वो वैसा ही बन जाएगा’ – ये तमाम नारे विभिन्न मंचों
से ज़ोर-शोर से लगाए जाते हैं। किन्तु बच्चों को यह संस्कार देगा कौन? माँ-बाप,जिसके पास आज की भागम-भाग भरी जिंदगी में पल भर का भी वक्त नहीं है ? तो फिर क्या यह जिम्मेदारी समाज की है ? किन्तु आज समाज के नैतिक मूल्य और आदर्श जिस तेजी से
विखंडित हो रही है, उस स्थिति
में क्या वह अपने इस दायित्व का पालन कर रहा है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर आज अनुत्तरित-से हैं। ऐसी स्थिति में एक
बाल-साहित्यकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उससे उपेक्षा की जा सकती है कि वह ऐसे
साहित्य का सृजन करेगा, जिससे बच्चों
का चरित्र का विकास होगा,उसमें नैतिक
मूल्यों कि वृद्धि होगी और वे एक अच्छे नागरिक बन सकेंगे।
किशोर उपन्यास पठनीय व श्रवणीय ही नहीं बल्कि किशोरों
के लिए उसका दर्शनीय भी होना अत्यावश्यक होता है। कुशल कहानीकार बालक के मानसिक
धरातल के अनुरूप कथ्य का चयन कर सशक्त प्रस्तुतीकरण-हाव-भाव,भावपूर्ण शब्द,चित्रों की भाषा के द्वारा बालक में जिज्ञासा और कौतूहल जागृत कर देता है।‘आगे क्या हुआ – जानने की उत्सुकता बालक के संवेगों से तादात्म्य कर लेती है। बालक कहानीकार
की कल्पनाओं और प्रतीकों में बहता हुआ अपने मानस पटल पर अनदेखे पदार्थों, व्यक्तियों तथा दृश्यों को प्रत्यक्ष देखने लगता है।
उसकी आँखों के समक्ष वर्णित पर्वत श्रेणियाँ, बीहड़ जंगल, समुद्र, नदी, गुफाएँ,देवलोक की परी,आकाशचारी राक्षस-दैत्य,चमत्कारी
बौने,करामाती
अंगूठी,वंशी,डंडे,धनुष-बाण,उड़न खटोले,राजा,रानी,साहसी वीर
बालक और राजकुमार, राक्षस के
चंगुल में फंसी राजकुमारी, पानी की
गहराई में बसा कश्मीर जैसा सुंदर नगर, आलीशान महल, बाग-बगीचे, विचित्र जीव-जंतु, घमासान युद्ध आदि सभी दृश्यमान हो उठते हैं। ऐसी कहानियाँ और उपन्यास
बच्चों को संस्कारित करते हैं, उनकी कुंठित
मनोदशाओं, दमित
इच्छाओं और मानसिक गुत्थियों को सुलझाकर उनके मनोभावों को परिष्कृत एवं विकसित
करती है। ये उपन्यास केवल बच्चों को ही नहीं अपितु युवाओं, प्रौढ़ों और वृद्धों के भी कौतूहल शमन कर उनकी कल्पना
को आंदोलित करती है। अतः आज के वैज्ञानिक उन्नत युग में भी इनकी उपयोगिता को नकारा
नहीं जा सकता। ऐसा ही एक बहुत चर्चित उपन्यास है डॉ॰ विमला भण्डारी का "कारगिल की घाटी"।
1॰ सितारों
से आगे
डॉ.
विमला भंडारी का यह बाल-उपन्यास है। जिसे सन् 2012 में
नेशनल बुक ट्रस्ट, नई
दिल्ली ने प्रकाशित किया है(ISBN 978-81-237-6606-5)
इस उपन्यास में महानगरों की भागम-भाग जिंदगी में खत्म
होते सामाजिक मूल्यों तथा नैतिक पतन को दर्शाते हुए एक
बड़े आवासीय काॅम्पलेक्स में मां के साथ सफाई का काम करते बारह साल के छोटे बच्चे ‘‘दल्ला’’ की
जिन्दगी को केन्द्रित कर कहानी प्रारंभ होती है। उसे साक्षर करने के सौम्या के
अपने भरसक प्रयासों के बावजूद भी गरीबी की विवशता से उसे बाल-मजदूर के रूप में
दल्ला को सुक्खा के गैराज में काम करना पड़ता है। जहां पेट्रोल के कैन गिरने की
मामूली गलती पर गैराज मालिक द्वारा सिर पर पेचकस फेंककर मारने के कारण जख्मी होकर अस्पताल
पहुंच जाता है। वह इस प्रहार से मरते-मरते बचता है मानो मौत के चंगुल से छूट गया
हो। महानगरों में जहां मानवीय संवेदनाओं का अभाव होता है, अपने
पड़ौस में रहने वाले व्यक्तियों से भी पूरी तरह जान-पहचान नहीं होती है, उस
महानगर में लेखिका सौम्या किसी अखबार के संपादक के अधीन विज्ञापन बनाने का काम देखती है।
अपने अपार्टमेंट में सफाई कर ‘बाड़ू’ अर्थात खाना मांगते ‘दल्ला’ व
उसकी मां को दयनीय अवस्था में देखकर उसका मन पसीज जाता है और वह राष्ट्र-सेवा के
रूप में मन में संकल्प लेकर ‘दल्ला’ को पढ़ाकर एक अच्छा इंसान बनाना चाहती है। अपने
इस नेक मकसद को वह अपने ऑफिस के चीफ साहब के समक्ष प्रस्तुत करती है तो वह उसे
नुसरत की कहानी सुनाता है कि आजकल के जमाने में पढ़ाई का जीवन में क्या महत्त्व
है। नुसरत का पढ़ाई में बिलकुल मन नहीं लगता था। उसकी मां ऋषभ से प्रार्थना कर उसे
पढ़ाने के लिए कहती है। मगर नुसरत खेलकूद और इधर-उधर के कामों में रूचि होती है
मगर पढ़ाई में बिल्कुल भी रूचि नहीं होती है। जिससे ऋषभ उसे विद्याादान नहीं दे
पाता है उधर उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। नुसरत और ज्यादा आजाद। उसकी माँ
क्षुब्ध होकर उसकी शादी करा देती है। पढ़ी-लिखी नहीं होने के कारण अच्छे वर से
शादी नहीं हो पाती है। उसका पति भी कम पढ़ा-लिखा और कमाने में भी कमजोर होता है।
दुर्भाग्यवश सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है और तेईस साल की उम्र में वह विधवा
हो जाती है। घर में तीनों बच्चों को पालन की जिम्मेदारी अकेले नुसरत पर आ गिरती
है। पति की मौत के बाद बच्चों के पालन-पोषण का सारा दायित्व नुसरत के कंधों पर आ
जाता है तब उसे समझ आता है पढ़ाई का महत्त्व। ऋषभ की यह कहानी सौम्या को दल्ला को
पढ़ाकर ‘दलीचन्द’ बनाने
के लिए प्रेरित करती है। इस नेक काम को अंजाम देने से पूर्व वह उसे अक्षर ज्ञान
करवाना चाहती है ताकि किसी अच्छी स्कूल में दाखिला होने में कोई परेशानी न हो। जब
उसे अंग्रेजी वर्णाक्षर पढ़ाए जाते है तो दलीचन्द एकाग्रचित्त उन्हें सीखने का
प्रयास करता है। देखते ही देखते वह अक्षर ज्ञान में निपुण हो जाता है। इसी दौरान
सौम्या के बचपन का सहपाठी जोसफ से मुलाकात हो जाती है। जिसके पिताजी का अहमदाबाद
से उदयपुर (राजस्थान) में स्थानांतरण हो जाता है। इस घटनाक्रम में लेखिका ने अपने
मूल-निवास स्थान अर्थात उदयपुर की खूबियों को उजागर करने में पीछे नहीं रही है। यह
लेखिका के लिए सहज भी था। जो उपन्यास में अपनी जगह की गरिमा को न केवल उजागर करने
में आसानी से अभिव्यक्त की जा सकती है वरन तथ्यों में यथार्थता का आकलन भी इतना ही
सहजता से अनुभव किया जा सकता है। जहां उदयपुर को ‘‘राजस्थान
का कश्मीर’’, ‘‘पूर्व
के वेनिस’’ से
तुलना कर उदयपुर की हरी-भरी पहाड़ियां, बाग-बगीचे तथा पानी से भरी लबालब झीलों के
साथ-साथ ‘‘सहेलियों
की बाड़ी की सफेद पत्थरों की बनी हुई फुहारों वाली छतरी के चारों तरफ बने पानी के
हौज चारों ओर से सावन की झड़ी की तरह फुहारों के अतिरिक्त ऐतिहासिक स्थलों जैसे
महाराणा प्रताप का स्मारक, खतरनाक
चीरवे का घाटा, मोती
मगरी, लोक-कला
मंडल, कठपुतलियों
के खेल और तरह-तरह के मुखौटों, पिछोला झील में बोटिंग, राजमहल, गणगौर
घाट, चिड़ियाघर
और यहां के लाल रंग के बंधेज दुपट्टों का इतनी खूबसूरती से लेखिका ने चित्रण किया
है कि अगर आपने अभी तक राजस्थान के सर्वोत्कृष्ट जगह उदयपुर की सैर नहीं की हो तो
एक बार पर्यटन के तौर पर अवश्य मानस बना लेंगे। ऐसे भी एक सर्वे के अनुरूप उदयपुर
को एशिया के सुन्दरतम नगर में एक गिना जाता है। वह वहां से डाक्टरी की पढ़ाई कर
रेडियोलोजिस्ट का कोर्स करता है जबकि सौम्या पत्रकारिता में डिप्लोमा पूरा करने के
बाद किसी अखबार के संपादक के अधीन विज्ञापन विभाग का काम देखती है। लेखिका की एक
और खासियत इस उपन्यास में नजर आती है कि उन्होंने हर पेशे जैसे पत्रकारिता हो या
मेडिसीन, उसकी
अर्थात गहराई में जाकर उसके मानव-संसाधन का गहन अध्ययन कर जहां समझने में पाठकों
को किसी भी प्रकार का भ्रम हो, उसे सरल भाषा में समझाने का विशिष्ट प्रयास
किया है। जैसे ‘एडीटर’ और ‘रिपोर्टर’ में
क्या अंतर होता है? जैसे
प्रधान संपादक, प्रबंध
संपादक, सह
संपादक तथा उप संपादक पदों के कार्य का वर्गीकरण किस तरह किया जाता है? जैसे
खेल संवाददाता कौन होते है और उनके क्या काम होते है? कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी
और उनके क्या काम होते है? रेडियोलोजिस्ट
और रेडियोग्राफर में क्या अंतर होता है? सोनोग्राफी, अल्फा किरण, गामा किरणों के प्रभाव? इन
सारी चीजों को जानने के लिए लेखिका को इन सारे कामों से व्यक्तिगत रूप से परिचित
होने के साथ-साथ नजदीकी से गुजरना पड़ा होगा।
किसी
का जीवन संवरता देख सौम्या के मन में एक अनोखी खुशी झलकती है, वह ‘दल्ला’ के
लिए कुछ उपहार भी लाती है। जब दल्ला को चोट लगती है, तो वह परेशान हो जाती है। कुछ दिनों के बाद जब
दल्ला (दलीचन्द) ने गणित की काॅपी में गुब्बारे का एक चित्र बनाता है और सौम्या जब
उसका अर्थ पूछती है तो वह कहने लगता है, उसके काम नहीं करने की वजह से घर नहीं चल पा
रहा है। वह सोच रहा है कि खाली समय में गुब्बारे बेचकर कुछ घर के लिए अगर वह पैसा
कमा सके तो उसकी पढ़ाई जारी रह सकती है अन्यथा नहीं,और उसके लिए उसे एक पंप चाहिए ताकि गुब्बारों
में हवा भर वह उनको बेच सके। पंप खरीदने के लिए उसे पैसे चाहिये। मगर सौम्या उन
पैसों का जुगाड़ नहीं कर पाती है तो दलीचन्द का पिता उसे सुक्खे के गैरेज में नौकर
रखवा देता है, जहां
वह पढ़ाई छोड़कर टायर निकालने, सुक्खे की सेवा करने तथा गैरेज का झाड़ू
निकालने का काम करता था। बदले में मिलती थी उसे सुक्खे की गालियां, मारपीट, क्रूरतापूर्वक
चिऊंटी और कान उमेठे जाना। थोड़ी-सी भी गलती होने पर बुरी तरह पीटा जाना। एक बार
तो वह पेचकस से पीटा गया जो सिर में दो इंच भीतर घुस गया। फिर लात-घूंसों से
मारपीट कि उसकी हाथ की हड्डी टूट गई। उसकी, क्रूरता, प्रताड़ना को उजागर करने के साथ लेखिका ने उसे
बाल-श्रम अपराध अधिनियम के प्रावधानों का सरे आम उल्लंघन करने के कारण सुक्खे को
जेल भेजना चाहती है मगर दलीचन्द का पिता कुछ पैसे लेकर सारा मामला रफा-दफा कर देता
है। दलीचन्द की मां को अपना सपना कि दल्ला कभी बाबू बन जाए साकार होते हुए
नजर नहीं आता है तो पल्लू से आंसू पोंछ-पोंछकर रोने लगती है। इधर
दलीचन्द की दुनिया में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव चल रहे थे। कभी वह किसी हिमालय माल के परिसर के फर्श को मशीन से साफ करने लगा,तो
कभी उसके उस्ताद के बेटे ने ‘दलित का बच्चा’ कहकर न केवल उसे गाली दी, वरन
उसके माता-पिता और खानदान को भी बुरी तरह कोसने लगा। इस तरह लेखिका ने यहां
उपन्यास को न केवल वैविध्यपूर्ण बनाने में सफल प्रयास किया है, बल्कि
आज भी समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच और छुआ-छूत की मानसिकता से बच्चों के
मन में होने वाले घाव को दिखाने में उनकी सशक्त कलम अधिकारिक तौर पर चली है। जिस
सामंतवादी ढर्रे को कभी गोदान, गबन जैसे कालजयी उपन्यास सम्राट मुंशी
प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में उजागर करते थे। दलित शब्द से आहत होकर दल्ला अपने
उस्ताद के बेटे को मार डालता है और उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। जीवन के
थपेड़े खाते दलीचन्द नशे का आदी हो जाता है और धीरे-धीरे म्युनिस्पिल्टी के चुनाव
में नेताओं की गलत संगत में पड़कर किसी को चाकू मार देता है और पुलिस उसे गिरफ्तार
कर जेल भेज देती है। लेखिका यहां आकर पशोपेश में पड़ जाती है, महज
चार-पांच साल के भीतर दलीचन्द एक कुख्यात अपराधी बन जाता है। पता नहीं, ऐसे
कितने दलीचंद होंगे
जो जमाने की मार खाकर सलाखों के पीछे अपना जीवन काट रहे होंगे, जबकि
उनके घर वालों ने क्या-क्या सपने नहीं बनें होंगे! इतना छोटा-सा बच्चा और इतनी
ज्यादा पेट की भूख। और तो और, उससे भी ज्यादा चारों तरफ क्रूर व असंवेदनशील
समाज। महानगरों में इन चीजों का कोई अर्थ नहीं होता है।
उपन्यास
का पटाक्षेप सुखांत करने के लिए लेखिका ने प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से ‘स्वप्न
मंजिल’ की
परिकल्पना की हैं । उपन्यास के सारे पात्रों को एक जगह लाकर खड़े करने का
सार्थक प्रयास किया है। ‘स्वप्न
मंजिल’ पथ
से भटके बच्चों के लिए केवल आशा की किरण है वरन लेखिका द्वारा सुझाया गया एक
समाधान भी है। प्रेस-कांफ्रेंस में ‘ब्लड कैंसर’ से जूझते बच्चे हरभजन के जीवन की मार्मिक गाथा
है, जिसकी
इस खौफनाक बीमारी के कारण दसवीं से पढ़ाई छूट जाती है और साढ़े तीन साल तक लंबे
अर्से तक कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी चलने के कारण वह स्कूल जाने में पूरी तरह से
असमर्थ हो जाता है। मगर घर में अपने पिता की घरेलू लाइब्रेरी से सभी धर्मों के
महापुरुषों की जीवन संबंधी पुस्तकें पढ़ने तथा टी.वी॰ पर महापुरुषों के
प्रवचन/गुरूवाणी सुनने से उसके मन प्रेरक-प्रसंग लिखने की इच्छा उमड़ पड़ी।
धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उसके लेख छपने लगे, पाठकों के प्यार भरी प्रतिक्रियाएं मिलने लगी
और धीरे-धीरे वह व्यस्त रहने लगा। उसकी व्यस्तता में न केवल वह अपनी बीमारी भूल
गया, वरन
उच्च आत्मिक अवस्था के आगे उसे अपनी बीमारी छोटी लगने लगी। उसने अपनी खुशी जाहिर
की कि उसके लिखे प्रेरक प्रसंग हर रोज सुबह स्कूलों की प्रार्थना-सभा में भी पढ़कर
सुनाये जाते है। और उन प्रेरक प्रसंगों का संकलन कर वह ‘‘जीत
आपकी’’ नामक
पुस्तक को प्रकाशित भी करवाया। यहीं ऋषभ और डाॅ. जोसफ मिलकर जरूरतमंद लोगों का
सहयोग करने का बीड़ा उठाते है। ‘स्वप्न मंजिल’ की परिकल्पना को सार्थक कर। यह मंजिल उन लोगों
को समर्पित है जो किसी कारणवश अपने बचपन में नहीं पढ़ पाए और जिनके मन में आज भी
इस बात का अफसोस है कि वे बुनियादी शिक्षा से वंचित रहे। इस इमारत से उन वंचित
लोगों को शिक्षा दी जाएगी जो कहीं सफाई कर्मचारी है और घरों में काम करते व करती
है। जो किसी अपराध के कारण सलाख्खें के पीछे चले गये। जो अब पढ़कर अपना जीवन
सुधारना चाहते है। इन वंचितों को देश की मुख्य-धारा से जोड़ने का नाम है ‘स्वप्न-मंजिल’।
लेखिका
ने यहां एक सवाल खड़ा किया है कि यह मंजिल इतनी शीघ्र ही कैसे? उन्होंने
सुझाया कि हर पढ़े-लिखे लोग अपनी कमाई का एक प्रतिशत हिस्सा भी बचाकर रखें तो ‘स्वप्न
मंजिल’ जैसी
संस्थाओं का निर्माण कर देश से अज्ञानता मिटाकर और उन वंचित लोगों को मुख्य-धारा
से जोड़कर देश के विकास में अहम भूमिका अदा की जा सकती है। अंत
में लेखिका अपना यह संदेश छोड़ने में सफल हुई है, स्वप्न मंजिल के माध्यम से दबे कुचले लोग टोकरी
बुनकर, कारपेट
बनाकर, दस्तकारी
कर पापड़-बड़ी बनाकर, छोटे-छोटे
लघु उद्योगों के सहारे स्वावलंबी बनकर दलीचन्द जैसे लड़के और नुसरत जैसी लड़कियां
खुशहाल जिन्दगी जी सकते है। विश्व
में जितनी भी क्रांतियां हुई है पेट की भूख से हुई है। एक छोटी शुरूआत हुई। सौम्या
विज्ञापन कंपनी की मालकिन बन जाती है, जिसके विज्ञापन अखबार से लेकर टी.वी. चैनल में
छाए रहते हैं और डॉ. अरूण लूसी रिसर्च सेंटर का मालिक। धूमिल के
शब्दों में-
‘‘कौन
कहता है आसमां में सूराख नहीं होता
तबीयत से पत्थर तो उछालो यारो।’’ अंत में, एक दार्शनिक तरीके से वह अपना उपन्यास पूरा
करती है, यह
कहते हुए, ‘‘आओ, हम
चलें सितारों से आगे।’’
इस उपन्यास के रोचक कथानक,चुटीले संवाद, उदात्त गुणों से भरपूर
पात्रों,बालकों के मानसिक शैली और
सोद्देश्यता के कारण बाल उपन्यास साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती हैं।
स्थान-स्थान पर दिए चित्र कहानी के प्रवाह को गतिशील, कथानक को रोचक और पत्रों
तथा देशकाल की विशिष्टताओं को व्यंजित करने के साथ पुस्तक को आकर्षक साज-सज्जा
प्रदान करते हैं और
बालकों की जिज्ञासाओं की की संतुष्टि,कल्पना-शक्ति का विकास,मनोविकारों का उन्नयन कर
उन्हें रोमांचित तथा उत्साहित करती है। यह उपन्यास प्रौढ़ रचनात्मकता की
गवाही देकर विमला भण्डारी को श्रेष्ठ बाल साहित्यकारों की में बैठने
का अधिकार देती हैं।
2.कारगिल की घाटी
कुछ दिन
पूर्व मुझे डॉ॰ विमला भण्डारी के किशोर उपन्यास “कारगिल की घाटी” की
पांडुलिपि को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस उपन्यास में उदयपुर के स्कूली बच्चों
की टीम का अपने अध्यापकों के साथ कारगिल की घाटी में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए
जाने को सम्पूर्ण यात्रा का अत्यंत ही सुंदर वर्णन है। एक
विस्तृत कैनवास वाले इस उपन्यास को लेखिका ने
सोलह अध्यायों में समेटा हैं, जिसमें
स्कूल के खाली पीरियड में बच्चों की उच्छृंखलता से लेकर उदयपुर से कुछ स्कूलों से
चयनित बच्चों की टीम तथा उनका नेतृत्व करने वाले टीम मैनेजर अध्यापकों का उदयपुर
से जम्मू तक की रेलयात्रा,फिर बस से
सुरंग,कश्मीर,श्रीनगर,जोजिला पाइंट,कारगिल घाटी,बटालिका में स्वतंत्रता दिवस समारोह में उनकी उपस्थिति दर्ज कराने के
साथ-साथ द्रास के शहीद स्मारक,सोनमर्ग की
रिवर-राफ्टिंग व हाउस-बोट का आनंद,घर वापसी व वार्षिकोत्सव में उन बच्चों द्वारा अपने यात्रा-संस्मरण सुनाने
तक एक बहुत बड़े कैनवास पर लेखिका ने अपनी कलमरूपी तूलिका से बच्चों के मन में
देश-प्रेम,साहस व
सैनिकों की जांबाजी पर ध्यानाकर्षित करने का सार्थक प्रयास किया है। अभी इस समय
अगर लेखन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, तो वह है- हमारे बच्चों तथा किशोरों में देश-प्रेम की भावना जगाना ताकि
आधुनिक परिवेश में क्षरण होते सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक
मूल्यों के सापेक्ष राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की संप्रभुता,सुरक्षा व सार्वभौमिकता की रक्षा कर सके। इसमें कोई
अतिशयोक्ति नहीं है कि बचपन में जिन आदर्श मूल्यों के बीज बच्चों में बो दिए जाते हैं,वे सदैव जीवन पर्यंत उनमें संस्कारों के रूप में
सुरक्षित रहते हैं। इस उपन्यास में एक प्रौढ़ा लेखिका ने अपने
समग्र जीवनानुभवों,दर्शन और अपनी समस्त संवेदनाओं समेत बच्चों की काया में प्रवेश कर उनकी चेतना,उनके अनुभव,उनकी संवेदना,जिज्ञासा,विचार व प्राकृतिक सौन्दर्य को विविध रूपों में परखने
को उनकी पारंगत कला से पाठक वर्ग को परिचित कराया है।
उपन्यास की
शुरूआत होती है,किसी स्कूल
के खाली पीरियड में बच्चों के शोरगुल,कानाफूसी और परस्पर एक-दूसरे से बातचीत की दृश्यावली से,जिसमें क्लास-मोनिटर अनन्या द्वारा सारी कक्षा को चुप रखना
और अध्यापिका द्वारा पंद्रह अगस्त की तैयारी को लेकर स्टेडियम परेड में अग्रिम
पंक्ति में अपने स्कूल के ग्रुप का नेतृत्व करने के लिए किसी कमांडर के चयन की घोषणा
होती है। तभी कोई छात्र अपनी बाल-सुलभ शरारत से कागज का हवाई-जहाज बनाकर अनन्या की
टेबल के ओर फेंक देता है,जिस पर
अनन्या का कार्टून बना होता है। यह देख अनन्या चिल्लाकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त
करती है,तभी क्लास
में दूसरी मैडम का प्रवेश होता है। उसे ज़ोर से चिल्लाते हुए देख मैडम नाराज होकर
सूची से परेड में शामिल होने वाली उन सभी बच्चों के नाम काट देती है,जिनका एक प्रतिनिधि मंडल स्वाधीनता दिवस पर कारगिल की
घाटी में शहीद-स्मारक पर देश की सेना के जवानों के साथ मनाने जाने वाला था।इस घटना से सारी कक्षा में दुख के बादल मंडराने लगते हैं, मगर मैडम की नाराजगी ज्यादा समय तक नहीं रहती है।इन सारी
घटनाओं को लेखिका ने जिस पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत किया है,मानो वह स्वयं उस स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा हो, या
फिर किसी प्रत्यक्षदर्शी की तरह छात्र-अध्यापकों के स्वाभाविक,सहज व सौहार्द सम्बन्धों स्कूल की दीवार के पीछे खड़ी होकर अपनी
टेलिस्कोपिक दृष्टि से हृदयंगम कर रही हो। क्लास टीचर के क्षणिक भावावेश या
क्रोधाभिभूत होने पर भी उसे भूलकर दूसरे दिन प्राचार्याजी
विधिवत प्रतिनिधि मंडल के नामों की घोषणा करती है। कुल तीन छात्राओं और साथ में
स्कूल की एक अध्यापिका के नाम की,टीम मैनेजर
के रूप में। बारह दिन का यह टूर प्रोग्राम था जम्मू-कश्मीर की सैर का। ग्यारह
अगस्त को उदयपुर से प्रातः सवा छः बजे रेलगाड़ी की यात्रा से शुभारंभ से लेकर वापस
घर लौटने की सारी विस्तृत जानकारी सूचना-पट्ट पर लगा दी जाती है।
सूचना-पट्ट पर इकबाल का प्रसिद्ध देशभक्ति गीत “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा” भी लिखा हुआ होता है। यहाँ एक
सवाल उठता है कि लेखिका इस देशभक्ति वाले गीत की ओर क्यों इंगित कर रही है? अवश्य, इसके माध्यम
से लेखिका ने स्कूली बच्चों के परिवेश तथा उनकी उम्र को ध्यान
में रखते हुए उनमें स्व-अनुशासन,स्व-नियंत्रण,शरारत,उत्सुकता तथा देश-प्रेम के गीतों से उनमें संचारित होने वाले जज़्बाती कोपलों
का सजीव वर्णन किया है।
दूसरे
अध्याय में रेलयात्रा के शुभारंभ का वर्णन है। सूचना-पट्ट पर कारगिल टूर के लिए
चयनित लड़कियों में तीनों अनन्या (कक्षा 9 बी),देवयानी
(कक्षा 8 बी) तथा
सानिया (कक्षा 10 बी) के नाम
की तालिका चिपकी होती है। अनन्या का यह रेलगाड़ी का पहला सफर होता है। अनन्या
मध्यम-वर्गीय परिवार से है,मगर अत्यंत ही कुशाग्र व अनुशासित, और साथ ही साथ ट्रूप लीडर के अनुरूप ऊंची कद-काठी वाली। लेखिका ने अनन्या
द्वारा घर में माता-पिता व दादी से कारगिल जाने की अनुमति लेने के प्रसंग से एक
मध्यमवर्गीय परिवार की मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत किया है,जिसमें दादी अभी भी लड़कियों को बाहर भेजने से कतराती
है,कारगिल तो
बहुत दूर की बात है,दूध की
डेयरी तक किसी के अकेली जाने से मना कर देती है। इस प्रसंग के माध्यम से लेखिका के
नारी सुरक्षा के स्वर मुखरित होते है। आज भी हमारे देश में छोटी
बच्चियाँ तक सुरक्षित अनुभव नहीं करती है। दादा-दादी के जमाने और वर्तमान पीढ़ियों
के बीच फैले विराट अंतराल को पाटते हुए आधुनिक माँ-बाप लड़कियों की शिक्षा तथा टूर
जैसे अनेक ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों के लिए तुरंत अपनी सहमति जता देते है तथा
लड़का-लड़की में भेद करने को अनुचित मानते है। मगर यह भी सत्य है, मध्यमवर्गीय परिवार में आज भी लड़कियों को घर के काम
में जैसे झाड़ू-पोंछा,रसोई,कपड़ें धोना आदि में हाथ बंटाना पड़ता है।अनन्या की यह
पहली रेलयात्रा थी,उसका उत्साह,उमंग और चेहरे पर खिले प्रसन्नता के भाव देखते ही
बनते थे। ऐसे भी किसी भी व्यक्ति के जीवन की पहली रेलयात्रा सदैव अविस्मरणीय रहती
है। पिता का प्यार और माँ की ममता भी कैसी होती है!इसका एक अनोखा दृष्टांत
लेखिका ने अपने उपन्यास में प्रस्तुत किया है। इधर अनन्या की बीमार माँ चुपचाप उसके सारे सामानों की पैकिंग कर उसे अचंभित कर
देती है,उधर पिता उसकी यात्रा को लेकर हो रही बहस के अंतर्गत जीजाबाई,रानी कर्मावती और झांसी की रानी के अदम्य शौर्य-गाथा
का उदाहरण देकर नई पीढ़ी में
देश-प्रेम और देश-रक्षा की भावना के विकास के लिए उठाया गया सराहनीय कदम बताकर
दादी को संतुष्ट कर देते है कि चौदह-पंद्रह वर्ष की उम्र में झांसी की रानी ने
अंग्रेजों से लोहा लिया था,तब अनन्या
को किस बात का डर? पिता के
कहने पर दादी के प्रत्युत्तर में “वह जमाना अलग था पप्पू,अब तो घोर
कलयुग आ गया है” कहकर आधुनिक
जमाने की संवेदनशून्यता की ओर इंगित करती है। मगर दादी द्वारा अनन्या को घर से
बाहर परायों के बीच रहने पर किस-किस चीज का ध्यान रखना चाहिए,किन चीजों से सतर्क रहना चाहिए,अकेले कहीं नहीं जाना चाहिए,तथा कुछ भी अनहोनी होने पर तुरंत अपनी अध्यापिका से
कहना चाहिए, जैसी
परामर्श देकर समस्त किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखने वाली लड़कियों के हितार्थ
संदेश देना लेखिका का मुख्य उद्देश्य है ताकि किस तरह कठिन समय में वे अपनी
बुद्धि-विवेक,धैर्य व
हौंसले से पार पा सकती है। अनन्या के माता-पिता की बूढ़ी आँखों में शान से लहराते
तिरंगे के सामने सेना के जवानों को सैल्यूट देने में भविष्य के सपने साकार होते
हुए नजर आते हैं।बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति जागरूकता लाने के साथ-साथ
लेखिका ने यह प्रयास किया कि बच्चों व किशोरों को रेलवे के आवश्यक सुरक्षा नियमों
व अधिनियमों की जानकारी भी हो,जैसे कि
रेलवे प्लेटफार्म टिकट क्यों खरीदा जाता है?,किस-किस अवस्था में चैकिंग के दौरान जुर्माना वसूला जाता है? आरक्षित डिब्बों में किन-किन बातों का ख्याल रखना
होता है ? आदि-आदि।
इस प्रकार
लेखिका ने अपने उपन्यास लेखन के दौरान वर्तमान जीवन-प्रवाह से संबंधित सभी
चरित्रों व घटनाओं का चयन रचना-प्रक्रिया के प्रारम्भ से ही प्रतिबद्धता के साथ
किया है। यह प्रतिबद्धता लेखिका के मानस-स्तर की अतल गहराई में बसती है,तभी तो उन्होंने काश्मीर की यात्रा-वृतांत पर आधारित
इस उपन्यास में अपनी मानसिक प्रक्रिया से गुजरते हुए भाषा के जरिए नया जामा पहनाकर
अधिक सशक्त और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। उपन्यास के तीसरे अध्याय ‘आपसी परिचय का सफर’ में इधर रेलगाड़ी का सफर शुरू होता है, उधर उसमें बैठे हुए यात्रियों के आपसी परिचय का सफरनामा प्रारंभ होता है। जोगेन्दर चॉकलेट का
डिब्बा आगे बढ़ाकर अनजान अपरिचित वातावरण में जान-पहचान हेतु हाथ आगे बढ़ाने का
सिलसिला शुरू करता है। सानिया, देवयानी,जोगेन्दर,अनन्या, कृपलानी सर
व उनकी पत्नी सिद्धार्थ,आशु,श्रद्धा,मिस मेरी (स्कूल की पीटी आई),रणधीर,जीशान, मैडम रजनी सिंह सभी एक दूसरे का परिचय आदान-प्रदान
करते हैं। सेठ गोविन्ददास उच्च माध्यमिक विद्यालय से टीम इंचार्ज कृपलानी सर, सेवा मंदिर स्कूल की टीम इंचार्ज रजनी सिंह मैडम। सभी
का परिचय प्राप्त होने के साथ-साथ चिप्स, नमकीन जैसी चीजों का नाश्ते के रूप में आदान-प्रदान शुरू हो जाता है। रेल की
खिड़की से बाहर के सुंदर प्राकृतिक नजारों में लगातार कोण बदलती हुई अरावली की
हरी-भरी पहाड़ियां और उनकी कन्दराओं में फैले लहलहाते खेत नजर आने लगते हैं, जिन पर गिर रही सूरज की पहली किरणों का खजाना दिग्वलय
के सुनहरे स्वप्निल दृश्यों को जाग्रत करती है। ट्रेन के भीतर मूँगफली,चिप्स,चाय,कॉफी,बिस्कुट, पानी,वडापाऊ,समोसे बेचने आए फेरी वालों का ताँता शुरू हो जाता है।
बच्चे लोग जिज्ञासापूर्वक उनसे बातें करने लगते हैं। अब तक अपरिचय की सीमाएं परिचय
के क्षेत्र में आते ही हंसी-मज़ाक,चुट्कुले,अंताक्षरी,फिल्मी गानों की द्वारा सुबह की नीरवता को चीरते हुए दोस्ताना अंदाज में
दोपहर के आते-आते विलीन हो चुकी थी। रेलगाड़ी अलग-अलग स्टेशनों को पार करती हुई
निरंतर अपनी गंतव्य स्थल की ओर बढ़ती जा रही थी। चितौडगड, भीलवाडा, विजयनगर,गुलाबपुरा,नसीराबाद से अजमेर।
फिर अजमेर से शुरू होता है, जम्मू
काश्मीर का सफर दोपहर दो बजे से। अपना-अपना सामान वगैरह रखने के कुछ समय बाद शुरू
हो जाती है फिर से रोचक चुटकुलों की शृंखला, जिसे विराम देते हुए हिन्दी के व्याख्याता शिवदेव जम्मू-प्रदेश की कथा
सुनाते है कि कभी महाराज रामचन्द्रजी के वंशज जाम्बूलोचन शिकार के लिए घूमते-घूमते
इस प्रदेश की ओर आ निकले थे। जहां एक तालाब पर शेर और बकरी एक साथ पानी पी रहे थे, इस दृश्य से प्रभावित होकर प्रेम से रहने वाली इस जगह
की नींव रखी, जो आगे जाकर
जंबू या जम्मू के नाम से विख्यात हुआ। (मुझे लगता है कि यह कहानी बहुत पाठकों को
मालूम नहीं होगी।) दूसरी खासियत यह भी थी, 1947 में भारत-पाक के विभाजन के दौरान जम्मू-कश्मीर में एक भी व्यक्ति की हत्या
नहीं हुई और जम्मू काश्मीर की राजधानी सर्दियों में छः महीने जम्मू और गर्मियों
में छः महीने कश्मीर रहती है। जम्मू को मंदिरों का नगर भी कहा जाता है, इसकी जनसंख्या लगभग दस लाख है। भारत के प्रत्येक भाग
से जुड़ा हुआ है यह नगर। श्री वैष्णो देवी की यात्रा भी यहीं से शुरू होती है।
जम्मू में डोगरा शासन काल के दौरान बने भवनों और मंदिरों में रघुनाथ मंदिर,बाहु फोर्ट, रणवीर केनाल, पटनी टॉप का
व्हील रिसोर्ट प्रसिद्ध है। काश्मीर कोई अलग से नगर नहीं है, गुलमर्ग, पहलगाँव, सोनमार्ग
सभी काश्मीर के नाम से जाने जाते है। मुगल बादशाह शाहजहां ने काश्मीर की सुंदरता
पर कहा था – “अगर धरती पर
कहीं स्वर्ग है,तो यहीं है,यहीं है,यहीं है।”
डल झील में
शिकारा पर्यटकों को खूब लुभाते हैं। श्रीनगर का खीर भवानी मंदिर व शंकराचार्य
मंदिर भी न केवल विदेशी,बल्कि भारत
के लाखों सैलानियों को काश्मीर की ओर खींच लाते हैं। काश्मीर का इतिहास भी भारत के
इतिहास की तरह अनेकानेक उतार-चढ़ावों से भरा हुआ है। सर्वप्रथम मौर्यवंश के सम्राट
अशोक के अधिकार में जब यह आया तो यहाँ के लोग भी तेजी से बौद्ध धर्म के ओर झुकने
लगे,फिर बाद में
तातरों और फिर सम्राट कनिष्क के अधिकार में काश्मीर रहा। ऐसा कहा जाता है कि
महाराज कनिष्क ने बौद्ध की चौथी सभा कनिष्टपुर काश्मीर में
बुलवाई थी। उस समय के प्रसिद्ध पंडित नागार्जुन कश्मीर के हारवान नामक क्षेत्र में
रहते थे। काश्मीर के पतन के बाद हूण जाति के मिहरगुल नामक सरदार ने काश्मीर पर
आक्रमण किया और यहाँ के निवासियों पर बर्बरतापूर्वक अत्याचार किए। उसकी मृत्यु के
बाद इस देवभूमि ने पुनः सुख की सांस ली। आठवीं शताब्दी में ललितादित्य नामक एक
शक्तिशाली राजा ने यहाँ राज्य किया। उसके समय में काश्मीर ने विद्या और कला में
बहुत उन्नति की। श्री नगर से 64 किलोमीटर
दक्षिण की ओर पहलगांव मार्ग पर जीर्ण अवस्था में खड़ा मार्तण्य के सूर्य मंदिर की
मूर्तिकला आज भी देखने लायक है,जबकि सिकंदर के मूर्तिभंजकों ने कई महीनों तक इस
क्षेत्र को लूटा व नष्ट-भ्रष्ट किया। नवीं शताब्दी में चौदहवीं शताब्दी तक हिन्दू
राजाओं का राज्य रहा। सन 1586 में अकबर ने
यहाँ के शासक याक़ूब शाह को हटाकर अपने कब्जे में कर लिया। अकबर की मृत्यु के बाद
उसके पुत्र व पौत्र जहाँगीर व शाहजहां यहाँ राज्य करते रहे। उन्होंने यहाँ उनके
सुंदर उद्यान व भवन बनवाएं। डल झील के आसपास शालीमार,नसीम और निशांत बाग की सुंदरता देखते बनती है। उसके
बाद जब औरंगजेब बादशाह बना तो मुगल काल में फिर से अशांति की लहर दौड़ आई। उसने
हिंदुओं पर जज़िया कर लगाया और हजारों हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया। इसके बाद
काश्मीर पर आफ़गान अहमदशाह दुरगनी ने अधिकार कर लिया जिसके कुछ समय बाद महाराजा
रणजीत सिंह ने इसे अफगानों से छीन लिया फिर
काश्मीर सिक्खों के अधीन हो गया। फिर सिक्खों और अंग्रेजों ने जम्मू के डोगरा
सरदार महाराजा गुलाब सिंह के हाथों 75 लाख में बेच दिया। उनकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र प्रताप सिंह यहाँ का राजा
बना और चूंकि उसके कोई संतान नहीं थी, इसीलिए उसकी मृत्यु के बाद हरी सिंह गद्दी पर आसीन हुआ। यह वही हरी सिंह था,जिसने भारत में काश्मीर के विलय से इंकार कर दिया था
और जब 22 अक्टूबर 1947 की पाकिस्तान की सहायता से
हजारों कबायली लुटेरे और पाकिस्तान के अवकाश प्राप्त सैनिकों ने काश्मीर पर आक्रमण
कर दिया तब उसने 26 अक्टूबर को
भारत में विलय होने की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। तब यह भारत का अटूट अंग बन गया।
चूंकि
लेखिका इतिहासकार भी है,अंत जम्मू
और काश्मीर के इतिहास की पूरी सटीक जानकारी देकर इस उपन्यास को अत्यंत ही रोचक बना
दिया। न केवल उपन्यास के माध्यम से काश्मीर की यात्रा बल्कि सम्राट अशोक के जमाने
से देश की आजादी तक के इतिहास को अत्यंत ही मनोरंजन ढंग से प्रस्तुत किया है,जिसे पढ़ते हुए आप कभी भी बोर नहीं हो सकते हो,वरन पीओके (पाक अधिकृत काश्मीर) के जिम्मेदार
तत्कालीन भारत सरकार तथा महाराजा हरी सिंह की भूमिका से भी परिचित हो सकते है,जिसकी वजह से 50 -60 हजार वीर सैनिकों को अपनी जान कुर्बान करनी पड़ी। इस प्रकार लेखिका ने हमारी
किशोर पीढ़ी को तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था से परिचित कराते हुए अपने कर्तव्य का
बखूबी निर्वहन किया है।
चौथे अध्याय
‘जम्मू से
गुजरते हुए’ में स्कूली
दलों की ट्रेन का जम्मू पहुँचकर कनिष्का होटल में बुक किए हुए कमरों में ठहरकर
जम्मू-दर्शन का शानदार उल्लेख है। आठ बजे जम्मू में पहुंचकर ठीक ग्यारह बजे कारगिल
जाने वाले दल के सभी सदस्य एक-एककर नाश्ते के लिए होटल के लान में इकट्ठे होने के
बाद किराए की टैक्सी पर जम्मू दर्शन के लिए रवाना हो जाते हैं। जीशान
द्वारा अपनी डायरी में टैक्सी ड्राइवर का नाम व नंबर लिखता है। कहीं न कहीं लेखिका के अवचेतन मन में आए दिन होने वाली रेप जैसे
घटनाओं से छात्राओं को सतर्क रहने की सलाह देना है, कि किसी कठिन समय में यह लिखा हुआ उनके लिए मददगार साबित हो सके। जम्मू-दर्शन का वर्णन लेखिका
ने अत्यंत ही सुंदर भाषाशैली में किया है,रघुनाथ
मंदिर की भव्य प्राचीन स्थापत्य कला,कई मंदिरों के छोटे-बड़े सफ़ेद कलात्मक ध्वज,वहाँ की सड़कें,वहाँ की
दुकानें,वाहनों की
कतारें,फुटपाथिए
विक्रेता,बाजार की
दुकानों के बाहर का अतिक्रमण,रेस्टोरेंट
यहाँ-वहाँ पड़े कचरे का ढेर ...... जहां-जहां लेखिका की दृष्टि पड़ती गई, उन्होंने अपनी नयन रूपी कैमरे ने सारे दृश्य को कैद
कर लिया।
इस मंदिर के
दर्शन के बाद उनका कारगिल जाने वाला ग्रुप श्रीनगर की ओर सर्पिल चढ़ावदार रास्ते
पार करते हुए आगे बढ्ने लगा। रास्ते में कुद पहाड़ पर बना शिव-मंदिर शीतल जल के
झरने,देशी घी से
बनी मिठाइयों की दुकानें,पटनी टॉप,बनिहाल,पीर-पांचाल पर्वतमाला और उसके बाद आने वाली काश्मीर घाटी की जीवन रेखा ‘जवाहर सुरंग’ का अति-सुंदर वर्णन। यही वह सुरंग है जिसकी वजह से काश्मीर वाला मार्ग सारा
साल खुला रहता है। बर्फबारी की वजह से या ग्लेशियर खिसक जाने की वजह से अगर कभी यह
रास्ता बंद हो जाता है या वन-वे हो जाता है,तो वहाँ के लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सुरंग के भीतर
से गुजरने का रोमांच का कहना ही क्या,जैसे ही टैक्सी की रोशनी गिरती इधर-उधर के चमगादड़ फड़फड़ाकर उड़ने लगते हैं।
गाड़ियों के शोर और रोशनी से उनकी शांति भंग होने लगती हैं।
लेखिका
जीव-विज्ञानी की विद्यार्थी होने के कारण वह बच्चों की चमगादड़ के बारे में जमाने
की उत्सुकता को अत्यंत ही सरल,सहज व
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रणधीर जैसे पढ़ाकू चरित्र के माध्यम से सबके सामने रखती है।
चमगादड़ दीवारों पर क्यों लटकते है? क्या इनके पंख होते हैं? क्या इन्हें
अंधेरे में दिखाई देता है? चमगादड़ के
लिए ‘उड़ने वाला
स्तनधारी’ जैसे शब्दों
के प्रयोग से विज्ञान के प्रति छात्रों में जिज्ञासा पैदा करता है। रात के घुप्प
अंधेरे में राडार की तरह काम करने वाले सोनार मंत्र की सहायता से बिना किसी से टकराए किस तरह चमगादड़ अपनी
परावर्तित ध्वनि तरंगों से किसी आबजेक्ट की दूरी या साइज का निर्धारण कर लेते हैं।
जिस पर आमेजन घाटी जैसी कई कहानियाँ भी लिखी गई है। चमगादड़ छोटे-छोटे कीड़ों फलों
के अतिरिक्त मेंढक,मछ्ली,छिपकली छोटी चिड़ियों को खा जाते है और पीने में वे फूलों
का परागण चूसते हैं,जबकि
अफ्रीका में पाए जाने वाली चमगादड़ मनुष्य का खून चूसते हैं। विज्ञान से संबंधित
दूसरी जानकारियों में यह दर्शाया गया है कि चमगादड़ के पंख नहीं होते वह उड़ने का
काम अपने हाथ और अंगुलियों की विशेष बनावट से कर पाता है। उनके हाथ के उँगलियाँ
बहुत लंबी होती है। उनके बीच की चमड़ी इतनी खींच जाती है कि वह पंख का काम करने
लगती है। इसी तरह उनके पैरों की भी विशेषता होती है। इनके पैर गद्देदार होते है।
सतह से लगते ही दबाव के कारण उनके बीच निर्वात हो जाता है यानि बीच की हवा निकल
जाती है और ये आराम से बिना गिरे उल्टे लटक जाते हैं। इस तरह डॉ॰ विमला भण्डारी ने
छात्रों को दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता का पुट लाने के लिए जिज्ञासात्मक सवालों के
अत्यंत ही भावपूर्ण सहज शैली में उत्तर भी दिए हैं। जैसे-जैसे सुरंग पार होती जाती है, गाड़ी के लोग ऊँघने लगते है। रात को
ढाई बजे के आस-पास उधर से गुजरते हुए वर्दीधारी हथियारों से लैस फौजी टुकड़ी बैठते
आतंकवाद के कारण मुस्तैदी से गश्त करते नजर आती है। यह पड़ाव
पार करते ही उन्हें होटल “पैरेडाइज़
गैलेक्सी” का बोर्ड
दूर से चमकता नजर आया।अब वह दल श्रीनगर पहुँच जाता है।
छठवाँ अध्याय
श्रीनगर की सुबह से आरंभ होता है। वहाँ बच्चों की मुलाकात होती है,इनायत अली नाम के एक बुजुर्ग से। जब उसे यह पता चलता
है कि यह दल 15 अगस्त
फौजियों के साथ मनाने के लिए कारगिल आया है तो वह बहुत खुश हो जाता है। कभी वह भी
फौज का एक रिटायर्ड़ इंजिनियर था। वह सभी बच्चों को एक एक गुलाब का फूल देता है तथा
अपने बगीचे से पीले,हरे,लाल सेव,खुबानी,आड़ू सभी
उनकी गाड़ी में रखवाकर अपने प्यार का इजहार करता है,तब तक मिस मेरी सभी बच्चों को कदमताल कराते हुए व्यायाम कराने लगती है।
गर्मी पाकर उनकी मांस-पेशियों में खून का दौरा खुलने लगता है। गुलाबी सर्दी में
दूध–जलेबी,उपमा,ब्रेड-जाम का नाश्ता कर काश्मीर घूमने के लिए प्रस्थान कर जाती है ।
सातवाँ
अध्याय ‘आओ काश्मीर
देखें’ में काश्मीर
में दर्शनीय व पर्यटन स्थलों की जानकारी मिलती है। कभी जमाना था की मुगल बादशाह
काश्मीर के दीवाने हुआ करते थे। जहांगीर और शाहजहाँ के प्रेम के किस्सों की सुगंध
काश्मीर की फिज़ाओं में बिखरी हुई मिलती है।जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां के साथ 2-3 महीने शालीमार बाग में ही
गुजारता था और शाहजहां अपने बेगम मुमताज़ महल के साथ चश्मेशाही की सैर करता था। इस
तरह यह स्कूली दल पहलगाँव,डल झील,मुगल बागों में चश्मे-शाही बाग,शालीमार बाग,नेहरू पार्क, शंकराचार्य
मंदिर सभी पर्यटनों स्थलों का भ्रमण करता है। शिकारा,हाउसबोट की नावें झेलम नदी पर बने सात पुल, डल झील के अतिरिक्त नगीन झील,नसीम झील और अन्वार झील जैसे सुंदर झीलों का भी आनंद
लेते है। इतनी सारी झीलें होने के कारण ही काश्मीर को ‘झीलों का नगर’ कहा जाता है। जिज्ञासु छात्र अपनी डायरी में पर्यटन स्थलों का इतिहास लिखने
लगते हैं,उदाहरण के
तौर पर चश्मेशाही को 1632 में शाहजहाँ
के गवर्नर अली मरदान ने उसे बनवाया और बाग के बीच में एक शीतल जल का चश्मा होने के
कारण उसे ‘चश्मेशाही’ के नाम से जाना जाता है। काश्मीरी कढ़ाई की पशमिजा शॉल
दस्तकारी के उपहार देखकर सभी का मन उन्हें खरीदने के लिए बेचैन होने लगता है। ‘शिकारों’(नौका) में भी चलती-फिरती दुकानें होती है,जिसमें आकर्षक मोतियों की मालाएँ, केसर,इत्र जैसी
चीजें मिलती है। वे लोग काश्मीर में पूरी तरह से घूम लेने के बाद वे दूसरे दिन
कारगिल की और रवाना होते हैं।
अगले अध्याय
में जोजिला पॉइंट की दुर्गम यात्रा का वर्णन है। ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के दुर्गम
रास्तों को पारकर यह यात्री-दल जोजिला पॉइंट पर पहुंचता है। इस यात्रीदल का नामकरण
अनन्या करती है,जेम्स नाम
से;पहला अक्षर ‘जी’ गोविंद दास
स्कूल के लिए,‘एम’ महाराणा फ़तहसिंह स्कूल और अंतिम अक्षर ‘एस’सेवा मंदिर
स्कूल के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए। सुबह-सुबह उनकी यात्रा शुरू होती
है। मगर बाहर कोहरा होने के कारण अच्छी सड़क पर भी गाड़ी की रफ्तार कम कर हेड लाइट
चालू कर देते है थोड़ी दूर तक
कोहरे की धुंध को चीरने के लिए। चारों तरफ धुंध ही धुंध,आसमान में सिर उठाए बड़े पहाड़, उनके सीने पर एक दूसरे से होड़ लेते पेड़,गाड़ी के काँच पर पानी की सूक्ष्म बूंदें अनुमानित
खराब मौसम का संकेत करती है। ऐसे मौसम में भी यह कारवां आगे बढ़ता जाता हैं, बीच में याकुला,कांगन व सिंधु आदि को पार करते हुए। गाड़ी से बाहर नजदीकी पहाड़ों पर चिनार
के पेड़ की लंबी कतार देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई तपस्वी आपने साधना में लीन हो
या फिर प्रहरी मुस्तैदी से तैनात हो, दूर-दूर तक छितरे हुए आकर्षक रंगों वाले ढालू छतों के मकान घुमावदार सड़कों
को पार करते हुए जम्मू काश्मीर के सबसे ऊंचे बिन्दु (समुद्र तल से 11649 फिट अर्थात 3528 मीटर ) जोजिला पॉइंट पर
आखिरकर यह यात्रीदल पहुँच जाता है। यहाँ पहुँच कर रणधीर बताता है कि समुद्र-तल से
जब हम 10,000 फीट की ऊंचाई पर
पहुँच जाते हैं तो वहाँ में आक्सीजन कि कमी होने लगती है,इस वजह से कुछ लोगों को सांस लेने में तकलीफ होने
लगती है,दम घुटता है,सिरदर्द
होने लगता है। इस तरह इस उपन्यास में लेखिका ने हर कदम पर जहां वैज्ञानिक
दृष्टिकोण की जरूरत महसूस हुई है,वहाँ उसे
स्पष्ट करने में पीछे नहीं रही है। यहाँ तक कि
ग्लेशियर,लैंड
स्लाइडिंग के
भौगोलिक व भौगर्भीक कारणों आदि के बारे में भी उपन्यास के पात्रों द्वारा पाठकों
तक पहुंचाने का भरसक प्रयास किया है। बीच रास्ते में वे लोग सोनमर्ग तक पहुँचते
हैं,जहां मौसम
खुल जाता है। नीले आसमान में छितराए हुए सफ़ेद बादलों की टुकड़ियाँ इधर-उधर तैरती
हुई नजर आने लगती है। दूर-दूर तक फैले घास के मैदानों में इक्के-दुक्के खड़े पेड़
मनोहारी लगने लगते हैं। कलकल बहती नदिया,ठंडा मौसम,ठिठुराती
हवा काश्मीर घाटी के सोनमर्ग को स्वर्ग तुल्य बनाती हुई नजर आती है। वहीं से थोड़ी
दूर थाजवास ग्लेशियर,मगर एकदम
सीधी चढ़ाई।घोड़ों से जाना होता है वहाँ। यहां पहुँचकर हिन्दी शिक्षिका रजनीसिंह
काश्मीर यात्रा के दौरान लिखी अपनी कविता सुनाती है। सभी लोग तालियों से जोरदार
स्वागत करते हैं। फिर कैमरे से एक दूसरे के फोटो खींचना तथा एक दूसरे पर बर्फ के
गोले फेंककर हंसी मज़ाक करना जेम्स यात्रीदल के उत्साह को द्विगुणित करता है।
सोनमर्ग की
यात्रा के बाद यह दल कारगिल की घाटी से गुजरने लगता है। दोनों किनारों में पहाड़ी
काटकर यह रास्ता बनाया गया। आड़े घुमावदार सड़कों का लुकाछिपी खेल, भूरे-मटमैले पहाड़ों पर फैले-पसरे ग्लेशियर, वहाँ की नीरवता,वनस्पति का दूर-दूर तक नामों निशान नहीं, पक्षियों की चहचहाहट तक नहीं-यह था कारगिल की घाटी का
परिचय। ऐसे खतरनाक रास्ते से पार करते समय उन्हें सांस लेने में सभी को तकलीफ होने लगती हैं। जाते समय
रास्ते में उन्हें सैनिकों का एक रेजीमेंट तथा स्मारक स्थल दिखाई देता है। जोजिला दर्रे के आसपास की
सड़क दुनिया की सबसे खतरनाक सड़कों में से एक है, यह बात का रणधीर जोजिला पास के यू-ट्यूब में वीडियो देखकर रहस्योद्घाटन
करता है। देखते-देखते वे अपने जीवन की सबसे ऊंचाई वाले स्थान जोजिला पॉइंट पर
पहुँच जाते हैं। इस खूबसूरत लम्हे को सभी अपने कैमरे में कैद करने लगते है।
कृपलानी सर अत्यंत खुश होते है कि किसी को ‘एलटीट्यूड इलनेस’ की परेशानी
नहीं हुई। अब यह दल द्रास की ओर बढ़ता है, जो सोनमर्ग से 62 किलोमीटर
तथा कारगिल से 58 किलोमीटर पर
है। यह दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा ठंडी जगह है। स्विट्जरलैंड के बाद द्रास का
नंबर आता है। द्रास की तरफ जाते समय रास्ते में एक पवित्र कुंड नजर आता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान
द्रौपदी के नहाने और शिवपूजन के लिए अर्जुन ने बाण से पृथ्वी को भेद कर पानी के
फव्वारे से इस कुंड का निर्माण किया था। इस पवित्र जगह का पानी पिलाने से निसंतान
महिला को संतान प्राप्ति हो जाती है,ऐसी मान्यता है। इस कुंड को द्रौपदी कुंड के नाम से जाना जाता है। इस कुंड
को पार कर जब यह कारवां आगे बढ़ता है तो सामने शहीद सैनिकों की याद में बनाया हुआ
एक चौकोर आयताकार स्मारक नजर आता है, जिस पर पाकिस्तान के हमले के दौरान कारगिल युद्ध में शहीद हुए सेना के कुछ
जवानों के नाम पद व विवरण लिखा हुआ है। चबूतरे के मध्य में खड़ी बंदूक पर सैनिक
टोपी लगी हुई है। इस स्थल पर शहीद सैनिकों को भावभरी श्रद्धांजलि देते “कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट कर घर ना आए” की पंक्तियाँ याद आते ही सभी की आँखें नम हो जाती है।
लगभग 6-8 किलोमीटर
आगे चलने के बाद भारत सरकार द्वारा कारगिल युद्ध के शहीदों की याद में बनवाया शहीद
स्मारक व स्मारक का उद्यान दिखाई देने लगता है। अंदर जानेवाले रास्ते पर लोहे की
बड़ी फाटक लगी हुई है। इस जगह पर इस
यात्री दल का 15 अगस्त शाम
को पहुँचने का निर्धारित कार्यक्रम है। सामने तलछटों से बनी आकृतियाँ वाले भूरे
पहाड़,जिन पर पीली,लाल,काली रंग की
करिश्माई रेखाओं के निशान बने हुए है। इन्हें ‘फोसिल्स’ के पहाड़
कहते है। इन पर वनस्पति का नामोनिशान नहीं, केवल शीशे की धातु जैसे चमकीले पथरीले पहाड़। सभी ने वहाँ फोटोग्राफी की और
लक्ष्यानुसार सूर्यास्त से पहले कारगिल पहुँच गए। कारगिल में यह यात्रीदल 14 अगस्त को पहुँच जाता है। कारगिल
शहर की अच्छी चौड़ी सड़कों को पार करते पतली सड़क की ओर से लगभग दो घंटों तक पहाड़ी
वादियों में गुजरने के बाद एक बस्ती में उतरकर वे स्थानीय निवासियों से मिलने लगते
हैं। सामने फिर ग्लेशियर नजर आने लगते है। हँसते-खिलखिलाते पहाड़ी चट्टानों पर बैठे
प्राकृतिक आनंद के क्षणों को भी प्रकृति के साथ अपने कैमरे में कैद करते जाते है
वे। 15 अगस्त को
सभी अपने स्कूल ड्रेस पहनकर बटालिका जाने के लिए तैयार हो जाते है और सेना की छोटी
गाडियों में बैठकर सैनिक छावनी पहुँच जाते हैं। जहां वर्दी में खड़े सैनिक दिखाई
पड़ते हैं और सड़क के किनारे से जुड़ी सफ़ेद मुंडेर हरी सीढ़ियों की ओर बने चौकोर
चबूतरे के बीच में लोहे के लंबे पाइप के ऊपरी सिरे पर बंधे तिरंगे झंडे, सीढ़ियों के दोनों तरफ गेंदे और हजारी के फूलों की
क्यारियाँ,सामने अग्नि-शमन
के उपकरण,ऊंची-ऊंची
पहाड़ियाँ और वहाँ से दिखाई देने वाले पेड़ों के झुरमुट देखकर सभी के चेहरे खुशी से
चमकने लगते है। मिस मेरी से कमांडर चीफ का परिचय व बातचीत होने के बाद आगामी
कार्यक्रम की रूपरेखा पर संक्षिप्त में चर्चा की जाती है। मंच पर लगी कुर्सियों
में अतिथियों के विराजमान होने के बाद कमांडर चीफ ने मिस मेरी को झंडे के नीचे
इशारा करके बुलाया और राइफल धारी सेना की टुकड़ी झंडे की तरफ मुंह करके कतारें
विश्राम की मुद्रा में खड़ी थी। बीच-बीच वाद्यमंत्र से सजे तीन जवान खड़े थे और ध्वज
के नीचे दोनों और गार्ड। सभी बैठे लोगों का खड़ा होने का आदेश मिलता है। कमांडर ने
सभी को सावधान किया और पलक झपकते ही स्तंभ पर बंधी डोरी को जैसे ही खींचता है,वैसे ही फूलों की बौछार के साथ तिरंगा हवा में लहरा
उठता है और राष्ट्रगान "जन गण मन
...... " वाद्ययंत्रों
की धुन के साथ गूंजता है। राष्ट्रगान के खत्म होते ही कमांडर के आदेश पर सेना की
टुकड़ी कदमताल करती हुई तिरंगा झंडा को सलामी देने लगती है, जयहिंद के नारों से बट्टालिका घाटी गुंजायमान हो उठती
है। अनन्या अपने दल का नेतृत्व करते परेड के साथ आगे बढ़ते हुए, रणधीर अनन्या के पीछे हाथ में ध्वज लिए और उसके बाद
अगली पंक्ति में जुनेजा बिगुल बजाते हुए। सभी परेड करते हुए। जैसे ही यह दल ध्वज
के नीचे पहुंचता है तो अनन्या सीढी चढ़कर चीफ के पास जाकर सैल्यूट करती है और चीफ
भी बदले में जवाबी सैल्यूट। फिर सेआ राइफलों की गूंज के साथ जयहिंद की आवाज घाटी
में गूंज उठती है। सभी के लिए यह दृश्य अत्यंत ही रोमांचक होता है, देश-भक्ति की भावना सभी के चेहरों पर दिखाई देने लगती
हैं। साथ ही साथ समूह-गान ‘सारे जहां
से अच्छा, हिंदुस्तान
हमारा ... ‘ शुरू होता
है। चीफ कमांडर सभी को संबोधित करते है। सम्बोधन के बाद सभी को चाय नाश्ते का
आमंत्रण मिलता है। लड़के अपनी डायरी में सैनिकों के
आटोग्राफ लेते हैं और लड़कियों फौजी भाइयों की कलाई पर राखी बांधकर कुमकुम से
तिलक लगाकर उनका मुंह मीठा करती है। बाजू में
एक प्रदर्शनी हाल है, जिसे देखने
के लिए जेम्स यात्रीदल आगे बढ़ता है। पास में ही बायीं ओर मेजर शैतान सिंह की काले
संगमरमर की फूलमाला पहनी हुई प्रतिमा,जिसके नीचे अँग्रेजी में लिखा हुआ था मेजर शैतान सिंह,पी॰वी॰सी। दूसरी लाइन में लिखा था, 1 दिसंबर 1924 से 18 नवंबर 1962। आखिरी लाइन में प्रेजेंटेड
बाय श्री मोहनलाल सुखाडिया द चीफ मिनिस्टर ऑफ राजस्थान आन 18 नवंबर 1962। सभी ने राजस्थान के महान
सपूत की प्रतिमा को माला पहना कर नमन किया और उसके बाद सभी कतारबद्ध प्रदर्शनी हाल
में प्रविष्ट हुए जहां शहीद हुए जवानों की खून सनी सैन्यवर्दी,हथियार,युद्ध में काम आने वाले गोले सभी को काँच के बने संदूकों व आलमीरा में पूरे
वितरण के साथ रखा हुआ था। भारत चीन युद्ध के श्वेत-श्याम छायाचित्र भी टंगे हुए
थे। कुछ मानचित्र भी लटके हुए थे। वहाँ से बाहर निकलकर भारत नियंत्रण रेखा को नमन
करते हुए अपनी अपनी गाड़ियों में बैठकर वे सभी विदा लेकर दूसरा पड़ाव शुरू करते है।
ग्यारहवाँ
अध्याय में द्रास में बने कारगिल के शहीद स्मारक का जिक्र है। जेम्स यात्रीदल
कारगिल की होटल ग्रीनपार्क को खाली कर फिर से अपनी गाड़ी में सवार होकर वापसी के
लिए निकल पडते है। 15 अगस्त के
शाम उन्हें कारगिल में शहीद हुए वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि भी देनी हैं।
सूर्यास्त होते-होते बावन किलोमीटर की दूरी तय अपने लक्ष्य स्थल शहीद स्मारक पर वे
पहुँच जाते है। उधर सामने की पहाड़ियों में लंबे पतले स्तम्भ पर राष्ट्रीय ध्वज शान
से फहरा रहा था । पहाड़ी पर लिखा हुआ था टोलोलिंग। शायद यह पहाड़ी का नाम होगा।
स्मारक के बाईं ओर हेलिपेड़ बना हुआ था और स्मारक की बाहरी दीवार पर बोर्ड बना हुआ
था जिस पर लिखा हुआ था आपरेशन विजय। यह उन शहीदों को समर्पित था, जिन्होंने हमारे कल के लिए अपना आज न्यौछावर कर दिया।
जीओसी 14 कॉर्प ने ने
उसे बनवाया था। युवा नायाब सूबेदार ने जेम्स यात्रीदल को यह स्मारक दिखाते हुए कहा
– शहीदों की
चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशान होगा। आपरेशन
विजय लिखे हुए स्मारक
स्थल के चौकोर पत्थर के चबूतरे के बीच काँच की पारदर्शी दीवार के भीतर बीचो-बीच
अमर ज्योति जल रही है और नीचे राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता की
पंक्तियाँ खुदी हुई है –
मुझे तोड़ लेना वनमाली,उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ जाए वीर अनेक ।
यहाँ सभी खड़े होकर सुर में ‘ए मेरे वतन के लोगों’ गीत गाने लगे। यह गीत सुनकर सभी के रोंगटे खड़े हो जा रहे थे। इस गीत को 1962 में भारत चीन के युद्ध के
दौरान कवि प्रदीप ने लिखा था,जिसे स्वर
दिए लता मंगेशकर ने। सूबेदार दिलीप नायक ने बताया कि दो महीने से ज्यादा चले
कारगिल युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को मार भगाया था और अंत में 26 जुलाई को आखिरी चोटी भी जीत
ली गई थी। इस दिन को ‘कारगिल विजय
दिवस’ के रूप में
मनाया जाता है। यहाँ फहरा रहे झंडे के बारे में बताते हुए भारत के राष्ट्रीय
फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कमांडर (रिटायर्ड) के॰वी॰सिंह के अनुसार यह
झण्डा 37 फुट लंबा,25 फुट चौड़ा,15 किलोग्राम वजन का है और जिस
पोल पर यह फहरा रहा है उसका वजन तीन टन और लंबाई 101 फुट है। दिलीप नायक कारगिल युद्ध कि विस्तृत जानकारी देते है। दूर पहाड़ों
की तरफ इशारा करते हुए उसने बताया कि वह टाइगर हिल है जिसे हमने जीता। आज भी हमारे
सैनिक वहाँ पहरा देते है और रक्षा कर रहे है। सर्दी में वहाँ का तापक्रम-60 सेल्सियस रहता है। ऐसे में
वहाँ रहकर काम करना आसान नहीं होता है। टाइगर हिल की छोटी-छोटी चोटियों को वे लोग ‘पिंपल्स’ कहकर पुकारते है। पास में एक प्रदर्शनी कक्ष भी बना हुआ था जिसमें परमवीर
चक्र और वीर चक्र पाने वाले शहीदों के फोटोग्राफ लगे हुए थे, युद्ध स्थल का काँच की पेटी में रखा गया एक पूरा मॉडल, दूसरी तरफ सैन्य टुकड़ियों (13जेएके आरआईएफ़,2 आरएजे आरआईएफ़ ) की स्थिति का नामांकन, हाथ से गोले फेंकने वाले सैनिकों की तस्वीर तथा हरिवंश बच्चन की हस्त लिखित
कविता ‘अग्निपथ!अग्निपथ!' रखी हुई थी। ये सारी चीजें जीवंत देखना जेम्स
यात्रीदल के लिए किसी खजाने से कम नहीं था। कुछ समय बाद वे लोग द्रास पहुँच जाते
हैं।
द्रास से वे
लोग श्रीनगर पहुंचते है, जहां
पहुँचकर शंकराचार्य मंदिर के दर्शन और हाउसबोट में रात्री विश्राम करना था। मगर
वापसी के व्यस्त कार्यक्रमों के कारण वे गुलमर्ग
नहीं देख पाते है। जेम्स यात्रीदल लेह-लद्दाख देखने के चक्कर में घर लौटना नहीं चाहते hain। जोगेन्दर
भी घर जाना नहीं चाहती है। बातों-बातों में पता चला कि जोगेन्दर के माता-पिता
दोनों हो इस दुनिया में नहीं है। दिल्ली में हुई दंगों के दौरान दोनों को ही
दंगाइयों ने मार दिया था। यहाँ लेखिका
ने देश में व्याप्त आतंकवाद के कारण होने वाले दुष्परिणामों के प्रति पाठकों को
आगाह किया है कि वे इस उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते
जोगेन्दर जैसे मासूम बच्ची की मानसिक अवस्था से भी
परिचित हो सकें।किस तरह आतंकवाद हमारे देश को और हमारे देश के बचपन को खोखला बना
रहा है,इससे ज्यादा और क्या क्रूर उदाहरण हो सकता है। घर जाने
के नाम से सभी के चेहरे पर उदासी देखकर कृपलानी सर सोनमार्ग
में सभी को रिवर राफ्टिंग दिखलाने का निर्णय लेते है। रिवर
राफ्टिंग के दौरान आपातकालीन अवस्था में रेसक्यू बैग, फ्लिप लाइन, रिपेयर किट, फर्स्ट-एड-किट
जैसी चीजों के प्रयोग के बारे में सभी को बताया जाता है।
पंद्रह-बीस साल पुराने खेल रिवर-राफ्टिंग की तेजी से बढ़ रही लोकप्रियता के कारण
इसे ऋषिकेश के पास गंगा नदी जम्मू-कश्मीर की सिंध और जांसकर, सिक्किम की तीस्ता आदि और हिमाचल प्रदेश की बीस नदी
पर खेला जा रहा है। बहुत ही रोमांचक खेल है यह! रिवर राफ्टिंग का मजा लेने के बाद
शाम के उजाले-उजाले में उनकी गाड़ी श्रीनगर के शंकराचार्य के मंदिर के तरफ चली जाती है। इस मंदिर
को तख्ते-सुलेमान भी कहा जाता है। लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की चढ़ाई पार कर शिवलिंग
के दर्शन के बाद मंदिर के परिसर में घूमते-घूमते श्रीनगर के सुंदरों नजारों जैसे
डल झील और झेलम नदी को देखने लगते है। इस मंदिर
की नींव ई 200 पूर्व ॰ के
सुपुत्र महाराज जंतुक ने डाली थी। वर्तमान मंदिर सीख राजकाल के राज्यपाल की देन है। यह डोरिक पद्धति के आधार पर पत्थरों से बना हुआ
है। रात को कार्यक्रम के अनुसार इस दल ने ‘पवित्र सितारा’ हाउस बोट
में विश्राम लेने के लिए सभी ने अपना आवश्यक सामान लेकर शिकारा में बैठ गए। हाउस
बोट के अंदर और बाहर की सुंदरता देखकर वे लोग विस्मित हो गए। खूबसूरत मखमली कालीन,नक्काशीदार फर्नीचर,शाही सोफा,बिजली के सुंदर
काँच के लैंप,झूमर, झिलमिलाते बड़े बड़े दर्पण सबकुछ नवाबी दुनिया जैसा लग
रहा था। इस यात्रा दल ने अलग-अलग स्थिति,जगह और धर्म के लोगों के साथ इतना दिन इस तरह गुजारे जैसे सभी एक ही परिवार
के सदस्य हो। एक दूसरे से भावुकतावश गलवाहिया करते,फोटो खींचते यह कारवां अपने घर जाने के लिए रवाना हो गया, अपनी गाड़ी को जम्मू में छोडकर अगला सफर रेल से करने
के लिए।
जैसे ही सभी
बच्चे अपने घर पहुँचते हो तो बच्चों की परिजनो में खुशी की लहर दौड़ जाती है। सभी
अपने-अपने बच्चों को लपककर गले लगा देते हैं। सब अपनी-अपनी ट्रिप की
बातें सुनाने लगे तथा वहाँ से खरीदे गए उपहार अपने माता-पिता तथा सगे-संबंधियों को
देने लगे। अनन्या ने तो अपने लिए कुछ न खरीदकर घरवालों के लिए बहुत सारे उपहार
खरीदे,इस प्रकार
घर का माहौल कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गया। यू-ट्यूब और इन्टरनेट के जरिए एक
दूसरे को आपने घूमे हुए जगह को दिखाने लगे कि जोजिला पास का रास्ता कितना खतरनाक
था और पहाड़ी रास्तों पर फौज के सिपाही किस मुस्तैदी से निर्भयतापूर्वक काम कर रहे
थे? टाइगर हिल
के दृश्य और वहाँ के सारे संस्मरण दूसरे को सुनाने लगे।
इस उपन्यास
का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा क्लाइमेक्स है।हल्दीघाटी के संस्कारों से
सनी यह यात्रा कारगिल की घाटी में जाकर समाप्त होती है और खासियत तो यह है कि
कारगिल की घाटी में शहीद हुए परम वीर चक्र मेजर शैतान सिंह को हल्दीघाटी की संतति
राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा उनके स्मारक का विधिवत उदघाटन
होता है। कारगिल घाटी और हल्दीघाटी के उन पुरानी वीर स्मृतियों को फिर से एक बार
ताजा करने में इस उपन्यास ने सेतु-बंधन के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की
है,जो लेखिका के कार्य और इसके पीछे की पृष्ठभूमि की महानता को दर्शाती है। उदयपुर शहर
के विख्यात सुखाडिया मंच के सभागार में सिटी क्लब द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव में
कारगिल की ट्रिप करके लौटे बच्चे विशेष आकर्षण के तौर पर आमंत्रित किए जाते है।
सर्वप्रथम इस यात्रीदल का परिचय देने के उपरांत उनके टीम इंचार्ज कृपलानी सर, टीम गार्जिन मिस मेरी तथा रजनीसिंह मैडम का स्वागत
किया जाता है। उन्होंने अपने उद्बोधन में क्लब के इस पुनीत कार्य की प्रशंसा करते
हुए बालकों को कम उम्र में देश के प्रति जोड़ने तथा उनमें राष्ट्र प्रेम जगाने वाले
इस पदक्षेप की भूरि-भूरि सराहना की। फिर सारे प्रतिभागी बच्चों को अपनी स्कूल यूनिफ़ोर्म
पहने मंच पर बुलाया जाता है,अपने-अपने
संस्मरण सुनाने के लिए। सबसे पहले दल की लीडर अनन्या ने मंचासीन अतिथियों का
प्रणाम कर कहना शुरू किया, “हमने ऐसे
जगहों का दौरा किया,जहां कारगिल
की युद्ध लड़ा गया। कौन भारतीय इससे परिचय नहीं होगे? जब भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान घुसपैठियों ने 1999 में कारगिल क्षेत्र की 16 से 18 हजार फुट ऊंची पहाड़ियों पर
कब्जा जमा किया था और फिर श्रीनगर लेह की ओर बढ़ने लगे। स्थिति की गंभीरता को देखते
हुए भारत सरकार वे इन घुसपैठियों के विरुद्ध ‘आपरेशन विजय’ के तहत
कार्यवाही की। इसके बाद संघर्षों का सिलसिला आरंभ हो गया। यह कहते-कहते भारतीय
सेना की सारी रणनीति का उल्लेख करते हुए (भारतीय सेना के सबसे कम उम्र वाले वीर
योद्धा जिसे परमवीर चक्र प्राप्त हुआ) जांबाजी की खूब तारीफ की। भावुकतावश उसकी
आँखों में आँसू निकल आते है और वह आगे कुछ नहीं बोल पाती है। इसी तरह
जीशान ने काश्मीर के इतिहास,होटल मालिक
इनायत की मोहब्बत,बटालिका की
सैनिक-छावनी तथा नायाब दिलीप नायक का शेर, "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर साल मेले" सुनाते हुए सभी में देशप्रेम की भावना की उद्दीप्त कर देता है। इसके बाद
श्रद्धा ने मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘चाह नहीं,मैं सुरबाला
के गहनों में गूँथा जाऊँ’ तो देवयानी
ने सोनमार्ग की रिवर-राफ्टिंग, तो सानिया
ने अभिभावकों से बच्चों को ऐसे आयोजन में भाग लेने की अनुमति देने, जोगेन्दर ने आतंकवादियों द्वारा अपने माता-पिता की
हत्या पर विक्षुब्धता जताते हुए शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि प्रदान करते और अंत
में रणधीर ने कारगिल युद्ध के तीनों चरणों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए टाइगर हिल पर फहरा रहे तिरंगा झंडे की याद
दिलाकर सभी से जाति-धर्म से ऊपर उठकर
देश की रक्षार्थ आगे आने का आह्वान किया जाता है। इस प्रकार
सभी बच्चों का संस्मरण ने सभागार में एक पल के लिए खामोशी का माहौल पैदा कर देते
हैं, राष्ट्र के
समक्ष आतंकवाद महजबी खतरों से लिपटने के लिए कुछ प्रश्नवाचक छोड़ते हुए। ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि’ कहकर अंत में सिटी क्लब ने अध्यक्ष सहित सभी मंचस्थ अतिथियों ने जाति-धर्म
के नाम पर दंगे न होने देने की शपथ लेते है व सभी शहरवासियों को इसमें सहयोग करने
की शपथ दिलाते है। राष्ट्रगान की गूंज पर सभागार में उपस्थित सभी दर्शकगण खड़े हो
जाते है।
इस तरह
लेखिका ने अपने उपन्यास को चरम सीमा पर ले जाकर पाठको के समक्ष समाप्त करती है।
मेरी हिसाब से यह उपन्यास केवल किशोर उपन्यास नहीं है, वरन हर देशभक्त के लिए पठनीय,स्मरणीय व संग्रहणीय उपन्यास है। इस उपन्यास में
तरह-तरह की रंग बिखरे हुए हैं, बाल्यावस्था
से बच्चों में देश-प्रेम के संस्कार पैदा करना,अद्भुत यात्रा-संस्मरण, सैनिक
छावनियों व प्रदर्शनियों का वर्णन,कारगिल युद्ध की परिस्थितियों का आकलन, जम्मू-कश्मीर का सम्पूर्ण इतिहास का परिचय,देशभक्ति से ओत-प्रोत गाने,बाल सुलभ जिज्ञासा,वैज्ञानिक
दृष्टिकोण सब-कुछ समाहित है। इस उपन्यास की विकास-यात्रा पाठकों की चेतना को अवश्य
स्पंदित करेगी। मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि ‘कारगिल की घाटी’ उपन्यास में
देश-प्रेम के जज़्बात,यात्रा
संस्मरणों की विविधता, संवेदनशीलता
की शक्तिशाली धारा प्रवाहित होती हुई नजर आती है। ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक रूप से
वर्तमान युग की सच्चाई की व्याख्या की जरूरत आज के समय हमें राष्ट्रीय, सामाजिक और मानवीय स्तरों पर झेल रहे चहुंमुखी
समस्याओं में आतंकवाद,सांप्रदायिकता
और धर्मांधता से मुकाबला करना अनिवार्य है। भारत पाकिस्तान के बिगड़ते सम्बन्धों द्वारा निर्मित भयानक और आतंकपूर्ण
माहौल में मानवीय संवेदनशीलता के बचे रहने या उसकी पहचान करने की कसौटी की तलाश
में डॉ॰ विमला भण्डारी का यह उपन्यास एक अहम भूमिका अदा करता है। मैं इतना कह सकता
हूँ कि हिन्दी उपन्यास लेखन के इस दौर में लेखिका ने समय की मांग के अनुरूप यथार्थ
को प्रस्तुत करके नई गरिमा और ऊंचाई को हासिल किया है। एक और उल्लेखनीय बात यह है
कि इस उपन्यास में कोई राजनैतिक पात्र नहीं है, मगर तीन स्कूलों के सामूहिक यात्रीदल जेम्स को देश की एकता और समाज माध्यम
के भविष्य की चिंता का अंकुर देश के भावी कर्णधारों में बोकर देश-प्रेम की जो अलख जगाई
है, वह चिरकाल
तक जलती रहेगी। लेखिका में एक ऐसी प्रतिभा का विस्फोट हुआ है, जो कभी देश की आजादी से पूर्व देशभक्त,उपन्यासकार,कवियों,समाज
सुधारकों जैसे प्रेमचंद्र,शरत चन्द्र
चट्टोपाध्याय, बंकिम
चन्द्र बंदोपाध्याय, रवींद्र नाथ
टैगोर,स्वामी
दयानंद सरस्वती में पैदा हुई। मैं विश्वास के साथ यह कह सकता हूँ कि हिन्दी जगत
में यह उपन्यास बहुचर्चित होगा और एक अनमोल कृतियों में अपना नाम दर्ज कराएगा।
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