स्वप्नदर्शी बाल-साहित्यकार सम्मेलन
अध्याय :- बारह
संस्मरण
स्वप्नदर्शी
बाल-साहित्यकार सम्मेलन
ओडिया बाल पत्रिका ‘नव आकाशर चंद्रमा’ द्वारा तालचेर के
नेशनल थरमल पावर प्लांट, कनिहा के दुर्गा-मंडप में 9
नवंबर 2014 को “चंद्रमा राज्य स्तरीय सांवत्सरिक महोत्सव 2014” मेरे लिए हमेशा
अविस्मरणीय रहेगा। तीन कारणों से- पहला, ओडिया भाषा के महान प्रबुद्ध समीक्षक डॉ॰ प्रसन्न
कुमार बराल का बाल-साहित्य पर दिया जाने वाला उद्बोधन। दूसरा कारण रहा, 9 नवंबर मेरा जन्म-दिन
होना और उसी दिन इस महोत्सव के आयोजकों द्वारा मुझे “चंद्रमा साहित्य
सम्मान” से
संवर्धित करना। तीसरा और मुख्य कारण रहा- ओडिया और हिन्दी भाषा के बाल साहित्य पर
तुलनात्मक विशिष्ट जानकारी का अर्जन।
गत सितंबर माह में
उदयपुर जिले के सलूम्बर में आयोजित ‘राष्ट्रीय बाल-साहित्यकार सम्मेलन ‘2014’ में जाने का मौका मिला। यहां इस महोत्सव
में आकर एक बार फिर मन में उस सम्मेलन की स्मृतियां एकाएक फिर से तरो-ताजा हो गई।
याद आने लगा वह समय जब -
“.........डॉ॰ विमला भंडारी की साहित्यिक संस्था
सलिला द्वारा सलूम्बर में आयोजित किया गया राष्ट्रीय बाल- साहित्यकार सम्मेलन और
उसमें देश के कोने-कोने से भाग लेने आए विख्यात बाल- साहित्यकारों के उद्बोधन, रचना पाठ और
कवि-सम्मेलन।
........ तालचेर से भुवनेश्वर तक का ट्रेन सफर, भुवनेश्वर से
उदयपुर तक हवाई सफर और उदयपुर से सलूम्बर तक टैक्सी सफर । आंखों के सामने
प्रत्यक्षदर्शी होने लगी ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश’ से लेकर बहुचर्चित बाल-उपन्यास “हैरी पॉटर” और उस पर आधारित धारावाहिक फिल्में।
...... सोवियत लेंड पुरस्कार से सम्मानित दिल्ली
विश्वविद्यालय के सेवा-निवृत्त प्रोफेसर डॉ॰ दिविक रमेश का बाल-साहित्य पर
सारगर्भित उद्बोधन, राजस्थान-ब्रजभाषा अकादमी संस्थान के पूर्व अध्यक्ष तथा प्रसिद्ध
वयोवृद्ध आशु कवि गोपाल प्रसाद मुद्गल की कविताएं, केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली से पुरस्कृत
तथा इस भव्य आयोजन की मुख्य कर्ता-धर्ता डॉ॰विमला भंडारी की डाक्यूमेंटरी फिल्म “सलिला का सफरनामा”, राजस्थान के महान
साहित्यकार डॉ॰ ज्योतिरपुंज का राजस्थान साहित्य अकादमी को बाल-साहित्य के क्षेत्र
में आगे लाने का आवाहन, ‘अभिनव-राजस्थान’ की परिकल्पना करने वाले डॉ॰ अशोक चैधरी साहित्यकारों से समाज-निर्माण में
महत्ती भूमिका पर अपने क्रांतिकारी विचार तथा देश के अलग-अलग प्रांतों से पधारे
साहित्यकारों से खाना खाते समय या इधर- उधर समय मिलने पर होने वाली लघु-वार्ता में
गहरे विचारों का आदान-प्रदान आदि। क्या कुछ नहीं होता है ऐसे साहित्यकार- सम्मेलन
में!बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
....... वहीं विमला जी जिन्होंने आठ साल पहले मेरे
ब्लॉग “सरोजिनी
साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ” पर उत्साहवर्द्धक टिप्पणी देकर मेरा मनोबल बढ़ाया था, आज वही विमला जी
(जिन्हें में दीदी जीजी कहकर पुकारता हूँ) मुझे “आयुर्विद्यायशोबल” का आशीर्वाद दे रही है और साहित्यकार समुदाय के
समक्ष ‘विशिष्ट
साहित्यकार सम्मान’ से मुझे सम्मानित कर मेरा साहित्य के प्रति न केवल विपुल अनुराग वरन
उत्तरदायित्व की सीमा में बढ़ोत्तरी की अपेक्षा किया जाना मेरे लिए सामाजिक
उम्मीदों के निर्वहन की कसौटी पर खरे उतरने के लिए एक संकल्प की घड़ी है।
.... सिरोही के ‘बग्गीखाना’ स्कूल में पहली कक्षा में पढ़ते समय एक कविता जो
मैं घर के प्रांगण मेँ घूम-घूम कर गुनगुनाता था , आज भी वे पंक्तियां ज्यों- की- त्यों स्मृति
कोशिकाओं के प्रकोष्ठ मेँ सुरक्षित है। चार पंक्तियाँरू-
“एक दिन बोली मुझसे नानी
मैं कहती तुम सुनो
कहानी
एक खेत बिन जुता
पड़ा था
ऊबड़- खाबड़ बहुत बड़ा
था
कोई चिड़िया दाना
लेकर
उड़ती- उड़ती गई डाल
पर”
..... इसी तरह दूसरी कक्षा मेँ ‘झितरिया’ की कहानी आती थी। ‘झितरिया’ एक छोटे लड़के का
नाम था, जो
ढोलकी मेँ बैठकर जंगली जानवरों से भरे घने जंगल से होते हुए अपनी नानी के घर जाता
है और बीच रास्ते मेँ जब कभी शेर तो कभी लोमड़ी तो कभी भालू मिलने अगर कोई झितरिया
से राजस्थानी भाषा मेँ पूछता , “झितरिया , तू कठे जासी ? मू थने खांसी ? (तुम कहाँ जा रहे हो?मैं तुम्हें खाऊँगा?)
झितरिया का उत्तर
होतारू-
“नानी के घर जावा दें
दूध-मलाई खावा दें
तगड़ों हुवें न आवा
दे
पछे खाए तो खा लीजे”
कहते हुए अपनी
ढोलकी को वह आदेश देता “चल मेरी ढोलकी ढमाक ढम”।
बचपन के मधुर दिन
धीरे-धीरे जीवन की कटुता, कठोरता और यथार्थता से टकराने लगते हैं और बाल-मन का विशुद्ध प्रेम
धीरे-धीरे अहंकार, घृणा, वैमनस्य और दुश्मनी मेँ परिवर्तित होते जाते हैं । लेकिन समय गुजरने के
बाद फिर से उन विस्मृत दिनों की याद आने लगती हैं तो मन करुणा, पश्चाताप, ग्लानि और
अपराध-बोध से भर उठता है । इन्हीं विचारों मेँ खोए-खोए ऐसी ही एक कविता डॉ॰ दिविक
रमेश जी की कविता “माँ” याद हो आई रू-
“ रोज सुबह मुंह अंधेरे
दूध बिलोने से पहले
मां चक्की पिसती
और मैं आराम से
सोता
तारीफ़ों मेँ
बंधी मां
जिसे मैंने कभी
सोते नहीं देखा
आज जवान होने पर एक
प्रश्न घुमड़ आया
पिसती चक्की या मां
?”
माँ की याद आते ही
मैं विचारों के प्रशांत महासागर में खो गया और उस अथाह गहराई में खोजने लगा मैं
बाल-साहित्य के मोती। उस विपुल सलिल-राशि में पकड़ने में समर्थ हुआ कुछ कीमती मोती, डॉ॰ विमला भंडारी
से साक्षात्कार के माध्यम से सारगर्भित अनुत्तरित सवालों के जवाब के रूप में। जब
मैंने बाल-पत्रिकाओं की रचना को साहित्य की अलग विधा माने जाने के कारणों का
स्पष्टीकरण उनसे चाहा तो उन्होंने मनोवैज्ञानिक तरीके से उत्तर दिया, “हर किसी इंसान के
व्यक्तित्व के एक अंश मेँ ‘बालपन’ छुपा हुआ होता है, जिसके अंदर विशुद्ध प्रेम व साहित्य की भाषा छुपी हुई होती है। अगर मन का
यह ‘बालपन’ मर जाता है तो आदमी
हिटलर की तरह निष्ठुर व क्रूर बन जाता है। यही कारण है कि बाल- साहित्य मेँ बच्चों
के समग्र व्यक्तित्व विकास के लिए सार्वभौमिक सत्यों व नैतिक मूल्यों पर विशेष बल
दिया जाता है। विगत वर्ष गोवा मेँ जब मुझे केंद्रीय हिन्दी साहित्य अकादमी से
सम्मानित किया जा रहा था, तो मैंने अपने उद्बोधन की शुरूआत इन्हीं शब्दों से की थी, मुझ जैसी प्रौढ़ा के
भीतर आज भी एक नन्ही-सी बच्ची किलकारियाँ मारती है और अपनी अभिव्यक्ति के नए-नए
रास्ते खोजती है। मुझे विमला जी के दर्शन व मनोविज्ञान ने पूरी तरह से
प्रभावित किया। उत्सुकतावश मैंने फिर से अपनी जिज्ञासा उजागर की, “बाल- साहित्य
बच्चों को किस तरह से प्रभावित कर सकता है ?”
एक जानी-मानी
इतिहासज्ञ होने के कारण उन्होंने पुरातन इतिहास के कुछ गौरवान्वित पन्नों को पलटते
हुए जवाब दिया “आपको इस बात की जानकारी अवश्य होगी कि गांधीजी अपने बचपन मेँ सत्यवादी
राजा हरिश्चंद्र के नाटक से बहुत प्रभावित हुए थे जिसकी वजह से उन्होने जीवनभर
सत्य के साथ अनुसंधान करते हुए “माय एक्सपरीमेंट विद ट्रुथ”
पुस्तक लिखी। वह नाटक क्या बाल-साहित्य का हिस्सा
नहीं था,जिसने
उनके जीवन को वैश्विक पुरुष बनाया? यही नहीं, शिवाजी की मां बचपन में उन्हें शूरवीरता की कहानियां सुनाती थी, जिससे आगे चलकर
उनमें शौर्य के गुण पल्लवित हुए और वह एक इतिहास पुरुष बन गए । बाल-साहित्य तो
साहित्य की सारी विधाओं की नींव है। जिस देश का बाल-साहित्य सुसमृद्ध, सुविज्ञ व सुशिष्ट
रहा है, वे
देश न केवल साहित्य वरन अन्य क्षेत्रों जैसी तकनीकी, दूरसंचार, वैज्ञानिक और यहां तक मनोविज्ञान में बहुत ज्यादा
अव्वल रहे हैं।”
मैं अभी भी डालफ़िन
की तरह सागर में गोते लगाते जा रहा था । मैंने अपना अगला सवाल उनसे पूछा, “आप तो हमेशा से
बाल-साहित्य की पक्षधर रही है, क्या आप बता सकती है कि वैश्विक व भारतीय परिप्रेक्ष्य में बाल-साहित्य
का प्रादुर्भाव कब हुआ ?”
“विश्व की पहली बाल पत्रिका थी सेंट निकोलस जो सन 1893 में न्यूयार्क से
प्रकाशित हुई। और भारत में सन 1894 को ‘बाल-बोधिनी’ पत्रिका प्रकाशित हुई थी। कई साहित्यकार बाल-साहित्य का आरंभ भारतेन्दु
युग में ‘बाल-दर्पण’ से मानते हैं,जबकि द्विवेदी युग
में ‘चुन्नु-मुन्नू’ पत्रिका का विशेष
महत्त्व था । इसके बाद पटना से ‘किशोर’ और हिन्दी स्तर प्रांत चेन्नई से चंदा-मामा, गुड़िया निकली। सबसे
उल्लेखनीय पत्रिका थी ‘शिशु’ , जो करीब 35 साल तक चली । सन1850-1900 की समयावधि को हिन्दी-जगत में भारतेन्दु युग कहा जाता था, स्वयं भारतेन्दु
हरिश्चंद्र ने ‘अंधेरी नगरी चैपट राजा’ बाल कहानी लिखी। उस दौरान सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र नाटक बहु-चर्चित हुआ
करता था, जो
तत्कालीन बालकों को बहुत आकर्षित करता था। स्वतंत्रता से पूर्व कई पत्रिकाएं
बाल-साहित्य के लिए समर्पित थी, जिसमें ‘सरस्वती’, ‘बाल-हितकर’,‘बाल-प्रभाकर’तथा‘हितैषी’मुख्य है।
स्वतंत्रता के बाद प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में‘बाल-भारती’,‘चंदा-मामा’,‘चुन्नु-मुन्नू’,‘विज्ञान-प्रगति’,‘पराग’,‘इंद्रजाल-कामिक्स’,‘चंपक’,‘मधु-मुस्कान’,‘सुमन-सौरभ’,‘बाल-मंच’ आदि मुख्य थी।”
कई अनमोल मोती अपने
साथ लेकर जैसे ही मैं धरातल पर आया,
वैसे ही सलूम्बर के इस आयोजन का शुभारंभ शताधिक
बच्चों के कवि-सम्मेलन से प्रारम्भ हो चुका था, जिसमें कुछ बच्चे- बच्चियाँ खुद मंच संचालन
करते हुए मंचासीन सभी बाल-कवियों को एक-एककर आमंत्रित रहे थे। उत्तराखंड के
बाल-साहित्यकार उदय किरौला व विमला जोशी उनका मार्गदर्शन कर रहे थे। बच्चों की
सुस्पष्ट वांग्मय भाषा में कविता-पाठ सुनकर मुझे अपने बचपन के सहपाठी शैलेश लोढा
की याद आने आने लगी। वह कभी सिरोही की स्कूलों में या कॉलेज के प्रांगण में
वार्षिकोत्सव के समय कुछ साथियों को लेकर ‘बालकवि सम्मेलन’ का आयोजन किया करता था, सलूम्बर के स्कूल
परिसर में बने इस सभागार हॉल में हो रहे इस आयोजन की तरह। अब सिरोही स्कूल का उस
बाल-कवि शैलेश लोढा ने अपनी कामयाबी का लंबा सफर तय किया। सब टीवी के
प्रोग्राम “वाह
! वाह! क्या बात है ?” में मुख्य उद्घोषक तथा ‘तारक मेहता का उलटा चश्मा’
में लेखक अभिनेता की भूमिका अदा करते हुए वह
कामयाबी के शिखर पर पहुँचकर देश के कोने-कोने से कवियों को तलाश कर कविता के
क्षेत्र में आगे बढ्ने के लिए मंच प्रदान करता है। मुझे सलूम्बर के मंच को देखकर
भविष्य के कवियों के प्रति मन आश्वस्त हो गया, कि इन बाल-कवियों से ही कोई सच्चिदानन्द हीरानंद
वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ कोई रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कोई ‘महादेवी वर्मा’ तो कोई ‘शैलेश लोढा’ निकलेगा अवश्य। यह मंच भी कल इतिहास के पन्नों में स्वर्ण-अक्षरों
में लिखा जाएगा। बाल-मन का दृढ़ संकल्प कितना शक्तिशाली होता है, यह तो हर कोई जानता
है। अगर बाल-हठ को किसी तरह सर्जन-शक्ति में बदल दिया जाए तो वह पारसमणि बन सकता
है। चाणक्य ने बाल-मन के गुप्त रहस्यों को अच्छी तरह समझा था। एक चट्टान पर बैठे
हुए ग्रामीण बालक में नेतृत्व के गुणों को देखकर उसे अपने पास बुलाकर अपने हाथों
से राज्याभिषेक करते हुए कहा “आज से तुम मगध के राजा हो¬-
‘राजा चन्द्रगुप्त मौर्य’ और मैं तुम्हारा
मंत्रीदृचाणक्य।”
बचपन की यादें खत्म
होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सिलसिलेवार कुछ न कुछ याद आता जा रहा था।कुछ
धुंधली तो कुछ स्पष्ट। यद्यपि विगत दो महीने पूर्व उदयपुर जिले के सलूम्बर में
आयोजित ‘राष्ट्रीय
बाल-साहित्यकार सम्मेलन’ की यादें तो एकदम तरोताजा थी,मगर मुझे लग रहा था जैसे कोई तंद्रा मुझे अपने आगोश में खींचे जा रही हो
और मेरे मानस-पटल पर हेड-लाइंस एक-एककर पार होने लगी हो।
एक अनपढ़ गंवार
बच्चे को संस्कारित सुशिक्षित और उचित सैन्य प्रशिक्षण प्रदान कर मगध में नंदराज
का उन्मूलन कर नए साम्राज्य की स्थापना कराने वाला विशिष्ट बाल-साहित्यकार
नहीं और क्या था ? बाल-साहित्य में और क्या चाहिए ? डॉ॰ विमला भंडारी ने इस अवसर पर पधारे सभी
बाल-साहित्यकारों का हार्दिक अभिनंदन व संवर्धन करते समय यही पंक्ति दोहराई थी कि
बाल- साहित्य बच्चों के चरित्र निर्माण कि पहली कड़ी है, जो बच्चों के अंदर
आत्मविश्वास जगाता है, और साथ ही साथ अनेकानेक सुषुप्त शक्तियों को जगाने में भी सहायक सिद्ध
होता है। हल्द्वानी से पधारी कॉलेज प्राध्यापिका डॉ॰ प्रभापंत ने उस मंच से बच्चों
के लिए एक अत्यंत ही ओजपूर्ण व मधुर गाना गाया था। कानों में घुली शहद जैसी मिठास
आज भी अनुभव की जा सकती है। पहली बार समझ में आया, बच्चों का गाने के शब्दों की ओर ध्यानाकृष्ट करने
के लिए न केवल गाने की शैली, भाव-भंगिमा वरन अभिनय-मुद्रा भी अभिव्यक्ति को अत्यंत प्रभावशाली बना
देती है। तभी तो देश भक्ति गाना ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाऊँ झांकी हिंदुस्तान की’ तथा फिल्मी बाल गीत
‘मेरे
पास आओ मेरे दोस्तो !एक किस्सा सुनाऊँ’
हमारी पीढ़ी के बच्चों के मुख पर हमेशा चिपके रहते
थे। इसी तर्ज पर जब कोटा के भगवती प्रसाद ‘गौतम’
जी ने जब अपने गाए हुए गाने के मुखड़ों के साथ
दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट पर बच्चों को दोहराने को कहा तो माहौल ऐसा बना मानो
फिल्मी दुनिया के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार ‘फिल्मी बाल-गीत’ गा रहे हो और बच्चे व दर्शक सभी उनका साथ दे रहे
हो। श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर उस दृश्य को हृदयंगम किए जा रहे थे। उसके बाद जब
जेताना के स्वामी प्रकाशनन्द ने शास्त्र-सम्मत बाल शिक्षा के मूल्यों पर यह कहते
हुए अपना उद्बोधन रखा दृ
“माता शत्रु पिता वैरी ये न पाठित बालका
ते न शोभन्ते सभा
मध्ये हंस मध्ये बकोयथा”
जो मां-बाप अपने
बच्चों को उचित बाल-शिक्षा नहीं दे पाते हैं वे उनके शत्रु है, वे उनके वैरी है।
क्योंकि शिक्षा के अभाव से उनकी अवस्था हंसों के मध्य बगुले की तरह होती
है।उदयपुर के सांसद श्री अर्जुन लाल मीणा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में बाल-साहित्य
को राजनीति की मशाल बताया था। मैं मन ही मन यह सोचने लगा था कि क्या भारत में
राजनीति के अंधेरे को बाल-साहित्य की मशाल से दूर किया जा सकता है ? भारत में जबकि इसे
हाशिए पर रखा जाता है। बाल-साहित्यकारों को ‘सेकंड सिटीज़न’ का दर्जा दिया जाता है। साहित्यकार तो साहित्यकार
होते है उनके पास शब्द-शक्ति, लेखन की कला और कल्पना- सागर में तैरने की विद्या होती है।
बाल-साहित्यकार का अर्थ यह नहीं होता है कि साहित्य के क्षेत्र में वे ‘बच्चे’ हैं। साहित्य के
क्षेत्र में तो वे उतने ही बड़े साहित्यकार है जितने दूसरे अन्य है, मगर उनके साहित्य
के पाठक अधिकांश बच्चे होते हैं अर्थात बच्चों को लक्ष्य बनाकर वे लोग
साहित्य-सर्जन करते हैं। इस बात पर भी डॉ॰ दिविक रमेश ने अपनी राय बताई थी
कि बाल-साहित्य केवल बड़ों के लिए नहीं वरन बच्चों के लिए भी होता है। जिस तरह
कार्ल मार्क्स की किताब ‘दास कैपिटल’, माओत्से तुंग की ‘लाल किताब’ तथा कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ ने सारी दुनिया में विकास पर आधारित राजनैतिक मॉडलों में बाकी बदलाव
लाया। यह भी सत्य है, जिस देश में बाल-साहित्य जितना उन्नत है, वह देश उतना ही ज्यादा विकसित है, सुसंगठित सुशील
सभ्य है। भले ही राजनीति व साहित्य दूर से अलग-अलग दिखते हो , मगर सागर की गहराई
में जैसे पानी एक होता है , वैसे राजनीति व साहित्य भी एक दूसरे से घुल-मिल जाते हैं। अगर साहित्य
सर्जन है तो राजनीति उसके क्रियान्वयन का दूसरा स्वरूप है। मैंने मन ही मन सांसद
अर्जुन लाल मीणा की इस बात का समर्थन किया कि जिस देश का बाल- साहित्य जितना
व्यापक व बहुआयामी होगा , उस देश का समाज उतना ही सशक्त , संगठित और लोकतांत्रिक होगा।
पता नहीं कब, मेरी स्वपनावस्था
तुरीयावस्था की ओर अग्रसर हो गई और मैं प्रशांत महासागर के तल को स्पर्श कर चुका
था। उस अथाह गहराई में मुझे याद आने लगा सलूम्बर के राष्ट्रीय बाल- साहित्यकार
सम्मेलन के पहले दिन की प्रथम संगोष्ठी “गढ़ती है बचपन, कविता के संग” में उदयपुर की शोधार्थी अनुश्री राठौड़ ने
अपना शोध-पत्र का प्रस्तुतीकरण और फिर दूसरी संगोष्ठी “तराशती है जीवन
कहानी के संग ” शीर्षक पर गढ़वाल के मनोहर चमोली ‘मनु’
के पॉवर पाइंट प्रोजेंटेशन।
‘गढती है बचपन, कविता के संग‘ जब शोध आलेख में अनुश्री राठौड़ कहती है तो यकायक
ही ऐसा लगा जैसे कोई मुझे खींच कर दो दशक पूर्व की दुनिया में ले गया। जहां थी
सिर्फ बेफिक्री अल्हड़पन और मस्ती। कई मिन्नतों और मनुहारों के बाद, जब माँ हथेली पर
पांच दस पैसे रख देती तो मन बल्लियों उछल जाता, था,
मानों खजाने का खुलजा सिमसिम वाला मंत्र मिल गया
हो और जब उन पैसों से खरीदी गई एक दो खट्टी-मिठ्ठी गोलियों को अपनी नन्हीं
हथेलियों में पकड़ने से जो सुख मिलता था, वैसा सुख आज फाइव स्टार होटल के खाने में भी नहीं
मिलता। आज भी जब किसी उदास शाम को बालकनी में बैठे हुए सोचती हूं तो दूर कहीं बचपन
की वो खिलखिलाती हंसी, आवाज लगाती हुई सी प्रतीत होती है और बरबस ही सुभद्राकुमारी चैहान की ये
पंक्तियां कानों में गूंज जाती है कि-
बारबार आती है
मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया, ले गया तू जीवन की
सब से मस्त खुशी मेरी।
अन्धविश्वास, और रूढ़ियों को
विज्ञान से जोड़ कर बालकों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने का प्रयास भी हमारी कई
कवयित्रियों ने किया है। इस शृंखला में मौनिका गौड अपनी कविता सूरज में
नन्हे-मुन्नों को बताती है-
सूरज तो है आग का
गोला, ये
विज्ञान बताता है
दीदी मुझको बतलाओ
ना, क्यों
भगवान कहाता है
धरती को ऊर्जा देते, बदले में कुछ भी ना
लेते
जीवन को चलना
सिखलाते, इसीलिये
भगवान कहलाते।
इस तरह पता नहीं
कितनी कवयित्रियों की कविता का संदर्भ दिया होगा अनुश्री ने।मैंने देखा सभी श्रोता
मंत्र-मुग्ध होकर सुन रहे थे।
दूसरी संगोष्ठी में
“तराशती
है जीवन कहानी के संग ” शीर्षक पर गढ़वाल के मनोहर चमोली ‘मनु’
के पॉवर पाइंट प्रोजेंटेशन में दर्शाते है कि
बच्चे देश की अनमोल संपत्ति है। बच्चों का बचपन बचाते हुए ऐसा वातावरण देना, जिससे वे अपने
अनुभवों से सीखकर बढ़ें। बच्चों की जिम्मेदारी केवल मां की नहीं पिता की भी है।
शिक्षक की भी है और समग्रता में समूचे समाज की है। बाल-साहित्य का हिन्दी कहानी लेखन
इस बात की पुष्टि करता है कि महिला सिर्फ एक मां, कार्मिक, अभिभावक ही नहीं एक सजग बाल-साहित्यकार भी है।
उनकी कहानियां इस बात का परिचय देती हैं। उनकी प्रकाशित कहानियां समाज में यह
स्थापित करना चाहती हैं कि बच्चे तभी पुष्ट नागरिक बन सकेंगे जब उन्हें शैशवावस्था
से ही उनकी बढ़ती आयु में सम्मान दिया जाए। उनकी बात सुनी जाए। उन्हें समझा जाए।
उन्हें विकास के समान अवसर मिले। बच्चों की आवश्कताओं को न सिर्फ समझा जाए बल्कि
उन्हें पूरा भी किया जाए। बच्चों के प्रति दायित्व सिर्फ माता-पिता का ही नहीं है,इस पूरे समाज का है।
उनकी कहानियां इस बात की ओर इशारा करती है कि आखिरकार बच्चे देश के लिए विकसित
होते हैं। उन्हें सही दिशा न मिले तो वह देश के लिए विध्वंसक साबित भी हो सकते
हैं। बाल-साहित्य मात्र मनोरंजन करने के लिए ही नहीं लिखा गया हैं,बल्कि
सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, सामुदायिक प्रतिबद्धता का हस्ताक्षर भी हैं। बाल-साहित्य एक-एक
बच्चे के बचपन की गरिमा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
इस आलेख की खुले मन
से समीक्षा करते समय राजस्थान के पाली जिले के सेवानिवृत्त अध्यापक विष्णु प्रसाद
चतुर्वेदी ने इस आलेख को अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण व बाल- साहित्य के लिए मिल का
पत्थर बता रहे थे। दूसरे समीक्षक थे दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त
डॉ॰ दिविक रमेश जी। इस आलेख पर अपनी समीक्षा के दौरान बाल- साहित्य को दूसरी
निगाहों से देखने तथा राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विधा पर दिए जा रहे
पुरस्कारों के प्रति भेदभाव पूर्ण नजरिए को दुखद बता रहे थे। क्योंकि इस कारण से
साहित्यिक-प्रतिभा संपन्न कोई भी कथाकार, रचनाकार या सृजनधर्मी अवहेलना का शिकार होने पर
बाल-साहित्य पर लिखना बंद कर देगा तो केवल द्वितीय श्रेणी का साहित्य ही हम अपने
बच्चों को परोस सकेंगे। सूचना-क्रांति का यह युग जहां बच्चों का बचपन छीना रही है।
आठवीं कक्षा का बच्चा अपने दोस्त के साथ मिलकर अपनी टीचर की हत्या या रेप की साजिश
रच सकता है। उनके मासूम मनोभाव आपराधिक प्रवृत्तियों में परिवर्तित हो जाते हैं।
इसलिए आधुनिक युग में “मोरल वैल्यूज” पर आधारित बाल-साहित्य का निर्माण अति-आवश्यक है, जहां बच्चे ‘न्यूक्लियर फेमिली’ में रह रहे हैं तथा
जहां किसी के पास बच्चों के लिए समय नहीं है, इस अवस्था में बचे-खुचे संस्कारों को अभिसिंचित
करने के लिए सुसंस्कृत बाल साहित्य के सिवाय और क्या रामबाण औषधि है ?
अंत में इस
राष्ट्रीय बाल- साहित्यकार सम्मेलन की सार्थकता पर अपना विचार प्रकट करते हुए डॉ
दिविक रमेश जी का कह रहे थे, “अगर देश के विभिन्न भाषा-भाषी लोग इस समारोह में शिरकत करते और अपने-अपने
राज्य व भाषा के बाल-साहित्य पर विवेचना करते तो यह आयोजन अपनी पूर्णता को प्राप्त
होता। यद्यपि इस अवसर पर देश के विभिन्न प्रांतों जैसे अहमदाबाद से नटवर हेड़ाऊ, गुड़गांव से लक्ष्मी
सुमन खन्ना, मुरादाबाद
से राकेश चक्र, शाहजहांपूर से मोहम्मद अरसाद,
जवलपुर से अश्विनी पाठक, उमरियापान् से राज
चैरसिया, तालचेर
(ओड़ीशा) से दिनेश कुमार माली व दंतिया के विनोद मिश्र ने भाग लिया, मगर सभी की कलम
हिन्दी भाषा में चल रही है। इसलिए इस आयोजन का नाम “राष्ट्रीय हिन्दी बाल साहित्यकार सम्मेलन” रखना ज्यादा उचित
होगा। और सलिला संस्था के लिए यह सराहनीय कदम होता कि गुजराती, मराठी, कन्नड़, ओड़िया, बंगाली, तामिल, आसामी व अन्य
भारतीय भाषाओं के साहित्यकार मिलकर बच्चों के लिए कुछ ऐसा साहित्य सृजन करते , जिससे न केवल देश
की एकता व अखंडता अक्षुण्ण रहती वरन आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ, निष्पक्ष व स्वच्छ
नेतृत्व प्राप्त होता। पुरातन समय में आदिगुरु शंकराचार्य ने चार मढ़ो की
स्थापना कर देश को एकता के सूत्र में बांधकर रखने का अनोखा प्रयोग किया था।”
डॉ॰दिविक रमेश जी
के इस सारगर्भित भाषण की समाप्ति के कुछ समय उपरांत हाड़ीरानी पर फिल्माई गई एक
डाक्यूमेंटरी फिल्म तथा दूसरी ‘सलिला के सफर नामा’ पर डाक्यूमेंटरी फिल्म का प्रदर्शन किया गया। हाड़ीरानी के जीवन प्रसंग को
रेखांकित करने वाले डॉ॰ विमला भण्डारी द्वारा लिखे गए नाटक “सतरी सैनाणी” (राजस्थानी) में तथा
“माँ!
तुझे सलाम” (हिन्दी
में) मैने पहले ही पढ़ रखे थे। इस फिल्म में राजस्थान के राजघरानों में शाही-ब्याह
की रस्म, रीति-रिवाज
से लेकर उनके रहन-सहन, खान-पान, शासन-प्रणाली के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है । स्कूल के बच्चों
द्वारा खेले गए इस नाटक का मंचन न केवल प्रभावी वरन लोमहर्षक भी था। बीच-बीच में
राजस्थानी संगीत के स्वर आपको उस जमाने की उन्नत सांस्कृतिक विरासत को याद दिला
रहे थे। पूरी फिल्म आपको टकटकी लगाकर देखने के लिए विवश कर दे रही थी। सबसे ज्यादा
क्लाइमैक्स तो तब पैदा हुआ,जब हाड़ीरानी अपना सिर काटकर युद्ध के आधे-मार्ग से लौटे राजकुमार को
उपहार के रूप में देती है। आप सभी के रौंगटे खड़े हो जाएंगे, एक खून से भरी थाली
में रानी का काटा हुआ सिर देखकर।उसे राजकुमार अपना अंतिम उपहार समझकर उस सिर की
माला बना कर अपने गले से लटकाकर मुस्लिम सेना से भीषण युद्ध करते हुए अपने प्राणों
का बलिदान कर देना सलूम्बर की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, यह विश्व का इकलौता
ऐसा उदाहरण है ।
इस फिल्म को देखकर
मेरे मन में विचार पैदा हुआ कि एक तरुण राजकुमारी के अपने हाथ में नंगी तलवार लेकर
अपनी गर्दन काटकर अपनी जान दे देने के अदम्य साहस के पीछे तत्कालीन क्या सामाजिक
व्यवस्था रही होगी? युद्ध-विभीषिका से डर रहे अपने पति को युद्ध के लिए प्रेरित करने के लिए ? इस प्रकार की
प्रथाएं क्या राजपूताना में ही प्रचलित थी? रानी पदमिनी के जौहर की कीर्ति ‘कीर्ति-स्तम्भ’ के रूप में आज भी
दैदीप्यमान है।
राष्ट्रीय
बाल-साहित्य का सम्मेलन का दूसरा पड़ाव। दूसरे दिन भारतीय प्रशासनिक सेवा से
त्यागपत्र देकर “अभिनव राजस्थान” की नींव रखने वाले मेड़ता सिटी के डॉ॰ अशोक चैधरी ने समूचे देश से पधारे
साहित्यकारों के समक्ष आवाहन किया कि साहित्यकार-वृंद बाल जगत के लिए कुछ ऐसा
लिखें कि वे अपने आप आकृष्ट होकर उस साहित्य को खोजकर पढ़े। मनीषियों ने साहित्य को
समाज का दर्पण कहा है, और बाल- साहित्य को देश निर्माण में भविष्य के कर्णधारों का बीजारोपण।
डॉ॰ चैधरी के अनुसार किसी भी देश के विकास में सकल घरेलू उत्पादन में बढ़ोत्तरी की
जितनी अहमियत है, उतनी ही अहमियत पर्दे के पीछे रहने वाले निरासक्त, कर्मठ, देशभक्त और
सुसज्जित मानव-संसाधन की। यह मानव-संसाधन अंकुरित होता है , प्रगतिशील बाल-
साहित्य के सृजन, मनन और अध्ययन से। बचपन के मासूम किलकारी करते हुए अधरों से प्रस्फुटित
होने वाले इस अंकुरण से मानवता के सर्वांगीण विकास के साथ-साथ “वसुधैव-कुटुम्बकम” महत्ती भावना का
प्रचार-प्रसार, उन्नयन व विकास होगा। जिससे वे हमारे देश के भ्रष्ट राजनैतिक-तंत्र को
धराशायी कर अभिनव-तंत्र की स्थापना कर सकेंगे। डॉ॰ दैविक रमेश ने भले ही, डॉ॰ चैधरी के
महत्त्वाकांक्षी इरादों को भांपते हुए उन्हे राजनीति से दूर रहकर समाज- सेवा करने
का अनुरोध किया, मगर मेरे मानस पटल पर राजनीति का बाल-मन पर प्रभाव जैसे अनछुए विषय का
सवाल अवश्य छोड़ गया। आस-पास का परिवेश तो बाल-मन को अवश्य प्रभावित करता है , मगर अमूर्त
राजनैतिक परिवेश की सुगबुगाहट भी बाल-मन को सकारात्मक या नकारात्मक ढंग से
प्रभावित कर सकती है ? जिन बच्चों को आगे जाकर भूतपूर्व राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम आजाद
की ‘मिसाइल
मैन’ की
भूमिका अदा करनी है , जिन्हें ‘अग्नि की उड़ान’ भरनी है,उनके तेजस्वी मन में ‘महाशक्ति भारत’ का एक खाका अवश्य तैयार करना है। डॉ॰ चैधरी भी ठीक ही कह रहे है, हाथ पर हाथ धरे
बैठने से क्या होगा ? किसी न किसी समाज-सेवी, नेता, अभिनेता, गैर सरकारी संस्था, समाज-सुधारक को आगे आकर इन पौधों की नर्सरी से ही हिफाजत
शुरू करनी होगी, ताकि वे हर अवस्था में, किसी भी वातावरण में अनुकूल हो या प्रतिकूल, अपने अस्तित्व की
रक्षा कर सकें। बच्चों के शिक्षा हेतु नोबल पुरस्कार विजेता मलाला और कैलाश
सत्यार्थी का इस क्षेत्र में किया गया कार्य हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
शिवखेड़ा की बहुचर्चित पुस्तक ‘आपकी जीत’ भी इस बात की पुनरावृत्ति करने के साथ-साथ सत्यापित करती है कि कोई भी
बड़ा आदमी बड़ा काम नहीं करता , बल्कि काम वही करता है जिसे दूसरे लोग करते हैं , मगर लीक से हटकर।
अगर अच्छे लोग राजनीति में नहीं आएंगे तो हम सभी के लिए गंदी राजनीति का शिकार
होना अवश्यम्भावी व अपरिहार्य है। अतः बस जरूरत है तो लीक से हटकर ऐसी शिक्षा
प्रणाली की, जो
पारंपारिक तौर दृ तरीकों व विचारधारा से बच्चों को उन्मुक्त कर विकासशील दुनिया
क्षितिज में सभी क्षेत्रों के प्रतिस्पर्धा कर नए - नए कीर्तिमान स्थापित करने में
मदद कर सकें। अगर अब्दुल समद राही, सत्य नारायण ‘सत्य’, सुरेखा ‘शांति’ , कीर्ति शर्मा , संजय जैन, मोहन श्रीमाली , दिनेश पांचाल , दुलाराम सहारण , बिष्णु प्रसाद चतुर्वेदी जैसे दिग्गज बाल - साहित्यकार अपनी लेखनी के
माध्यम से नई सृजनशील पौध तैयार कर समाज के उत्थान में अपना योगदान दें। तभी हाॅल
तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मंच से डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल का नाम उद्बोधन
के लिए पुकारा गया। इसके साथ ही वे हाथ जोड़ प्रसन्न मुद्रा में उठ खड़े हुए।
डॉ॰ प्रसन्न कुमार
बराल से मैं पूर्व परिचित था, उन्हें तालचेर के प्रेस क्लब में आयोजित “कोयला नगरी एक्सप्रेस” के वार्षिकोत्सव
में मैंने सुना था। वह अंगुल के नालको नगर के पास फर्टिलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया
(एफ़॰सी॰आई॰) से सेवानिवृत्त केमिकल इंजिनियर थे , मगर एफ़॰सी॰आई॰ ने उनकी सेवाकाल को दोदृतीन साल के
लिए बढ़ाया था। ओड़िया नाटकों में उनकी गहरी रुचि थी, अपने जीवन की शुरूआती दौर में फिल्म-इंडस्ट्री तथा
ड्रामा-इंस्टीट्यूट से भी जुड़े हुए थे,
और तो और, वे ओड़िया-साहित्य में गहरी-रुचि रखते थे। उनका
एफ़॰सी॰आई॰ कॉलोनी वाला क्वार्टर तो किताबों की रैक से भरा हुआ था, मानो एक छोटा-मोटा
पुस्तकालय हो। मैं उनके साहित्य ज्ञान के बारे में बहुत ज्यादा प्रभावित था , उन्हें सुनने के
लिए सारे काम छोड़कर लंबी दूरी तय कर पैदल जाना भी पड़े तो इस कार्य के लिए मैं सदैव
तैयार रहता था। कहते है,ज्ञान
का आकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बहुत ज्यादा होता है !
इस महोत्सव का बीज
वक्तव्य देते हुए वह कहने लगे “हम साहित्य को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर ‘श्रेणीवाद’ पैदा कर रहे हैं।
जो देशदृविदेश के किसी भी साहित्य-धारा के लिए अच्छा नहीं है। उदाहरण के तौर पर हम
समीक्षक लोग साहित्य को विभिन्न वर्गों में जैसे “बाल-साहित्य’,‘किशोर-साहित्य’,‘प्रौढ़-साहित्य’,‘नारी-साहित्य’ में बांटकर साहित्य का हित नहीं,बल्कि अहित कर रहे
हैं। साहित्य तो असीम है। उसे सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता है । वह तो अभिव्यक्ति
का माध्यम है, जो अपने आप भीतर से निकलता है। एक स्वतःस्फूर्त प्रवाह की तरह साहित्य
रेंगते सांप की तरह टेढ़ी-मेढ़ी होकर बहने वाली निरंतर गतिशील जीवन-सरिता की अनेक
घाटियों, वादियों, पहाड़-पर्वतों, मैदानों को पार
करते हुए अपने साथ विभिन्न अनुभूतियों के कंकड़दृपत्थर, रेत-मिट्टी और
झाड़-झंगड़ सभी को आगे ले जाते हुए असीम साहित्य-सागर में समा जाने को उत्सुक होता
है। जिस तरह हमने अपनी सुविधा के लिए समाज को अनेकानेक जातियों में बांटकर न केवल
देश की अखंडता को क्षति पहुंचाई हैं,
वरन कई जातिगत कुरीतियों को जन्म दिया हैं। सही
मायने में, समाज
का विकास बाधित हुआ है प्रगति के स्थान पर। कहीं ऐसा न हो साहित्य को श्रेणीबद्ध
किए जाने वाला कदम साहित्यिक विकास को अवरुद्ध करने के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्थाओं
के साथ खिलवाड़ न पैदा कर दें।“
कहते-कहते वह कुछ
समय के लिए नीरव हो गए। उसके बाद उन्होंने बच्चों के मनोविज्ञान का बहुत ही सुंदर
ढंग से वर्णन किया। मुझे उनके विचारों में विप्लव नजर आ रहा था।जिन्हें
मुख्य-वक्ता के रूप में बाल-साहित्य के समर्थन में अपनी बात रखने के लिए बुलाया
गया था,वहीं
इंसान पता नहीं क्यों, बाल-साहित्य के वर्गीकरण के खिलाफ अपने विचार रख रहा है। ऐसी बातें केवल
क्रांतिकारी समीक्षकों के सिवाय कौन कह सकता था !
मैंने मन ही मन
निश्चय किया कि जैसे ही यह आयोजन समाप्त हो जाएगा, तो मैं इस संबंध में अपनी कुछ शंकाओं के निवारण के
लिए डॉ॰ बराल से अवश्य मिलूंगा । आयोजन की समाप्ति के बाद संयोगवश मैं ‘कोयला नगरी
एक्सप्रेस’ के
मेरे मित्र संपादक हेमंत कुमार खूंटिया तथा डॉ॰ बराल एक साथ गाड़ी में बैठकर कनिहा
से तालचेर लौट रहे थे। रास्ते भर बाल-साहित्य पर तरह-तरह का विमर्श होता रहा। डॉ॰
बराल ने बात शुरू की ‘चन्दा- मामा’ पत्रिका से। वह कहने लगे,
“यह पत्रिका देश आजाद होने से पहले देश की तेरह
भाषाओं में प्रकाशित होती थी । मगर दुख की बात है कि किन्हीं आर्थिक या तकनीक
कारणों की वजह से ‘चन्दा-मामा’ ( जिसे ओड़िया में ‘जन्ह मामू’ कहते है ) का प्रकाशन कार्य विगत वर्ष से बंद हो गया है। अगर आप चाहे तो
ूूू॰बींदकंउंउं॰बवउ पर आसानी से देख सकते हो।”
“अच्छा,
आप भी ‘चन्दा-मामा’ पढ़ते थे ?” मैंने जिज्ञासावश उनसे पूछा ।
“जी हाँ ! ‘चन्दा-मामा’ मेरी फेवरेट पुस्तक थी। मैं इतना क्रेज़ी था इसके
लिए , कि
क्या कहूँ? एक
बार मुझे मेरी धर्मपत्नी के इलाज के लिए क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लूर जाना पड़ा
था, इस
दौरान मैंने ‘चन्दा-मामा’ पत्रिका के
मुख्यालय चेन्नई में स्थित ‘चन्दा-मामा भवन’ को देखने का निश्चय किया था। आप सोच सकते हो कि मेरा उस बाल-पत्रिका के
प्रति कैसा लगाव रहा होगा। उस समय प्रकाशन-गृह के व्यवस्थापकों ने मेरा बहुत
स्वागत किया था ,और मुझे अपने ऑफिस के सारे कक्षों में घुमाया भी था। आपको जानकार आश्चर्य
होगा कि उनके पब्लिकेशन हाऊस में एक ‘राइटर्स वर्कशॉप’ भी था” कहकर वह कार से बाहर की ओर झाँकने लगे जैसे वह अतीत के किसी दल-दल में
धंसते जा रहे हो।
मैंने उनका ध्यान-भंग
करने के लिए कहा , “ ‘राइटर्स बिल्डिंग’ नाम तो मैंने अवश्य सुना है ,
मगर ‘राइटर्स वर्कशॉप’ तो पहली बार सुन रहा हूँ । क्या होता है यह ?”
“‘चंदा-मामा’ में छपने वाली कहानियों, कविताओं, लेख, संस्मरण या
यात्रा-वृत्त आदि का सृजन देश के तेरह भाषा दृ भाषी लेखकों की टीम करती थी। वे सभी
बैठकर ‘ब्रेन-स्टोर्मिंग’ करते थे, सोचते थे और अपने
विचारों का आदान - प्रदान करते थे । इसलिए ‘चंदा-मामा’ की कहानियां, कविताओं में किसी भी लेखक या कवि का नाम नहीं लिखा
होता था। इस संस्था के मालिक थे श्रीयुत वी॰नागारेड्डी, जो बाद में तमिल
फिल्मों के ड़ायरेक्टर बने।”
फिल्म का नाम सुनते
ही मेरे जेहन में कादर खान का चेहरा उभर आया। किसी ने कादर खान की “राइटर्स लेब” के बारे में भी
मुझे बताया था। उत्सुकतावश मैंने उनसे कहा, “आप ठीक कह रहे हैं, बराल साहब। हिन्दी फिल्मों के मशहूर अभिनेता कादर
खान के डायलॉग बीस-पच्चीस पेशेवर लेखक मिलकर लिखते थे, बदले में उन्हें
मासिक तनख्वाह मिलती थी। शायद उन लेखकों को फिल्म की मांग के अनुरुप ‘सिसुएशन’ बता दी जाती होगी, जिस पर वे लेखक
व्यक्तित्व, पात्र, काल और परिस्थिति
के अनुसार डायलॉग लिखते होंगे।”
तुरंत ही हामी भरते
हुए वह कहने लगे “आप एकदम ठीक कह रहे हैं। आप क्या सोचते हो कि अंग्रेजी, हिन्दी या देश की
दूसरी भाषाओं के राष्ट्रीय अखबारों में जितने भी बड़े-बड़े स्तंभकार है, क्या वे खुद अपने
स्तंभ लिखते हैं ? कभी नहीं, उनके पास इतना समय कहां ? यह कार्य करने के लिए वे पेशेवर लेखकों को हायर करते हैं। अपदार्थ
स्तंभकार बड़े-बड़े कंगूरे बन जाते हैं,
जबकि वेतनभोगी वे लेखक किसी अंधेरी कोठरी में
गुमनामी की ज़िंदगी बिताने लगते हैं।”
बड़े-बड़े आभासी
लेखकों की खोखली यथार्थता को सीधे शब्दों में उजागर करने वाले साहित्यकार डॉ॰बराल
की पकड़ न केवल बाल-साहित्य बल्कि लेखन की विभिन्न विधाओं पर बहुत मजबूत हैं ।
इसलिए मैंने अपने मन के भीतर चल रहे सवाल का उत्तर पाने के लिए एक बार फिर उनसे आग्रह किया, “क्या आप बता सकते
है कि ‘चंदा-मामा’ जैसे प्रकाशन-गृह
के बंद होने के क्या तकनीकी कारण हो सकते है?”
थोड़ी देर वह चुप
रहकर फिर कहने लगे, “आजकल तो अधिकतर भाषाएं मर रही है तो उनका साहित्य कैसे जिंदा रहेगा ? और अगर साहित्य ही
मर जाएगा तो उसकी विधा, श्रेणी कहां टिक सकेगी ? आज शिशु-साहित्य भी मर रहा है । इंटरनेट, मोबाइल, वीडियो-गेम्स सभी ने तो आजकल के बच्चों का बचपन
छीन लिया है । आज के समय में आपके हो या मेरे, किसी का बच्चा कोई किताब पढ़ता है ? वीडियो-गेम्स खेलने
से फुर्सत मिलेगी तब ना ? अंग्रेजी में भी अच्छा बाल साहित्य है। आपने कभी “।सपबम पद
ॅवदकमतसंदक”पढ़ी
है ? उसका
कथानक है, एलिस
एक चैराहे पर खड़ी है, रास्ता भूल गई है और सोच रही है जाऊं तो किधर जाऊं ? हमारी जनेरेशन भी
रास्ता भूल गई है ? फेरे में पड़ गई है बच्चों को कौन-सी राह दिखाए ? तकनीकी भी इतनी
ज्यादा जरूरी है, जितनी ज्यादा जीने के लिए आक्सीजन। जैसे बिना आक्सीजन के मृत्यु
अवश्यम्भावी है, वैसे ही तकनीकी के प्रयोग के बिना नई पीढ़ी रसातल को चली जाएगी । ‘हैरी पॉटर’ के बारे में तो आप
जानते है, एक
साथ पचास लाख प्रतियां बिकी। रहस्यवादी कहानियों की फिल्मों का प्रचलन बढ़ गया है
शिशु-जगत में जैसे ‘कोई मिल गया’,‘हल्क’,’स्पाइडरमेन’ आदि।यह ही सब कारण है कि बच्चों की कल्पना-शक्ति , सृजनशीलता में
लगातार गिरावट आती जा रही है। ऐसा केवल ओडिशा में नहीं है, वरन देश के सभी
प्रांतों में , यहाँ तक शत-प्रतिशत साक्षर प्रांत केरल में भी इससे बदतर हालत है।
स्कूलों में ‘मोबाइल-लाइब्रेरी’ की व्यवस्था समाप्त
होती जा रही है। लाइब्रेरी के किताबें रखने वाली अलमारियों में मध्याह्न भोजन की
सामग्री चावल, दाल, आटा रखे जाने लगे हैं। जिसकी वजह से थोड़ी-बहुत किताबें जो बची- खुची थी, उन्हें चूहे कुतरने
लगे हैं। ऐसे हालात में कैसे रक्षा की जा सकती है भारत के बाल-साहित्य की ? लाखों भारतीय
बच्चों के बचपन को जिंदा रखकर सृजनशील बनाने में कभी सहायक रही ‘चन्दा-मामा’( जन्ह मामू ) जैसी
पत्रिकाओं के दिन आज कम्प्यूटर के जमाने में कहाँ ? उनके दिन लद चुके हैं। कहकर डॉ॰ बराल कुछ भावुक
लगने लगे मानो आने वाली पीढ़ी की चिन्ता उन्हें बुरी तरह से खाए जा रही हो कि किस
तरह सुकोमल बचपन को बचाया जाए। पांच-दस मिनट चुप्पी के बाद उन्होंने फिर से कहना
शुरू किया , “आपने
देखा , आज
जो बाल-पत्रिकाएँ रिलीज हुई है , उनकी “ग्रामर ऑफ लाइन” कैसी है ?”
यह शब्द मेरे लिए
एकदम नया था। मैं असमंजस की अवस्था में था कि किसी रेखा की भी व्याकरण होती है ? रेखा तो गणित का
शब्द है। दो बिन्दुओं को मिलानेवाली रेखा , मगर व्याकरण तो शुद्ध भाषायी शब्द है। भाषा और
गणित का अनोखा संगम था यह। मेरे चेहरे के नकारात्मक भाव देखकर डॉ॰ बराल इस शब्द के
बारे में मेरी अनभिज्ञता को समझ गए।
वह कहने लगे, “लाइन की भी एक ग्रामर
होती है। जो रेखाएं रेखांकित की जाती है या जिससे रेखाचित्र बनाए जाते हैं, अगर उनकी शार्पनेस, कलर बच्चों को
प्रभावित नहीं करते है तो उन पत्रिकाओं के प्रति बच्चों की अभिरुचि कैसे पैदा होगी
? उन
पत्रिकाओं के तो “टार्गेटेड रीडर” होते हैं जिनका मन अत्यंत ही कोमल, विमल और निर्मल होता है । कोई भी रंग-बिरंगी छवि
बाल-मन को तुरंत आकर्षित करती है। बचपन में आप ‘चाचा चैधरी’ आर ‘वेताल’ के कॉमिक्स भी पढे होंगे। आज भी मेरे मन मस्तिष्क में चाचा-चैधरी
की बड़ी-बड़ी रौबीली मूंछें , सिर पर बंधी पगड़ी , हाथ में डंडा और साथ में विशालकाय साबू की तस्वीरें घूमती रहती है।”
मैं तत्काल समझ गया
‘ग्रामर
ऑफ लाइन’ की
परिभाषा। कुछ ही पूर्व नेशनल बुक से प्रकाशित डॉ॰ विमला भण्डारी की अद्यतन पुस्तक “किस हाल में मिलोगे
दोस्त?” में
बाल-कहानी के दो पात्र अर्थात खाकी जिल्द के कागज और अखबार के कागज की ‘ग्रामर ऑफ लाइन’ इतनी आकर्षक, लुभावना और सुंदर
है कि बरबस आपकी निगाहों को एकबारगी पूरी पुस्तक को इधर से उधर पलटने पर विवश कर
देगी और मुँह से निकलेगा,”वाह,क्या
कलरफुल ड्राइंग है!”
शायद बड़े
प्रकाशन-गृह बाल-साहित्य में इस बात का विशेषकर ध्यान रखते है। यह सोचते हुए मैं
अपने अतीत में झांकने लगा तो मुझे याद आने लगे मेरे बचपन के दिन। उस समय में
कक्षा सात-आठ का विद्यार्थी हुआ करता था, जब मेरे भाई और मेरे दोस्त सिरोही की
सरजाबावड़ी के पास एक रंगरेज के मकान के नीचे दुकान के पतंग व मंजा खरीदते थे, उस समय मैं वहाँ
सूतली की रस्सी पर टंगी बाल पत्रिकाएँ जैसे ‘तैनालीराम’ ‘अकबर- बीरबल’ ‘बाल -भारती, ‘बाल-हंस’, ‘चंदा-मामा’, ‘वेताल’, ‘मधु-मुस्कान’ ‘सौरभ-सुमन’, ‘नंदन’, ‘पराग’, ‘चंपक’, ‘बाल-प्रहरी’, ‘बाल-वाणी’ और पॉकेट सीरीज
वाले बाल-उपन्यास ‘अलाऊद्दीन का चिराग’, ‘सिंदबाज़’,‘सिहांसन-बत्तीसी’, ‘वेताल-पच्चीसी’, ‘अलिफ-लैला’, आदि बीस-पच्चीस पैसे पर किराए पर लेकर आता पढ़ने के लिए। सन 1980-81 की बात रही होगी, उस समय इंद्रजाल
कॉमिक्स का लोकप्रिय उपन्यास ‘वेताल’ और उसका अंग्रेजी वर्सन ‘फेंटम’ में वेताल की नीले रंग की स्पाइडरमैन जैसी पोशाक और काला-चश्मा पहनकर खड़े
रहने की त्रिभंगी मुद्रा आज भी स्मृति-पटल के धुंधलके में से झांककर सामने नजर आने
लगती है।
मेरी तुरीयावस्था
भंग हुई अचानक गाड़ी के ब्रेक लगाने से। डॉ॰ बराल मुझे झकझोरते हुए कह रहे थे, “उठिए, तालचेर आ गया
है।लगभग चार बजने वाले है।”मैंने आँखें मलते हुए देखा कि हेमंत कुमार खूंटियाजी के “कोयला नगरी
एक्सप्रेस” का
कार्यालय आ चुका था। मेरा ड्यूटी जाने का समय हो गया था। हेमंत कह रहे थे, चाय पीकर जाइए। मगर
मैं तो अभी भी बचपन की मधुर-खुमारी से उभर नहीं पा रहा था। काश! समय-चक्र पीछे की
ओर चलता और ‘कागज
की कश्ती और बारिश के दिन” लौट आते और उन दिनों की खुमारी को मैं सदैव अपने पास रख पाता।
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