प्रौढ़-साहित्य

अध्याय:चार  

प्रौढ़-साहित्य
बच्चों की मानसिकता को समझना, फिर इस तरह लिखना कि रचना उस मानसिकता के अनुकूल भी हो और बच्चों की समझ को कुछ बढ़ाने वाली भी यह बहुत कठिन काम है। शायद इसीलिए बंगला साहित्य में बड़े लेखकों को तब तक साहित्यिक जगत में शिद्दत के साथ स्वीकार नहीं किया गया, जब तक उन्होंने बाल-साहित्य नहीं लिखा। हिन्दी में स्थिति भिन्न रही। यहाँ बड़े लेखकों के लिए भी बाध्यता नहीं रही कि वे अपने आपको स्थापित करने के लिए अनिवार्यतः बाल साहित्य रचें। इसलिए हिन्दी में प्रौढ़ साहित्य-लेखकों कि जितनी बड़ी संख्या दिखती रही है, उतनी बाल साहित्य लेखकों कि नहीं दिखती। यद्यपि इस क्षेत्र में हरिवंश राय बच्चन, भवानी प्रसाद मिश्र, चिरंजीत, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बाल स्वरूप राही जैसे कुछ स्वनामधन्य प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अपनी कलाम चलायी है, लेकिन उनकी पहचान प्रौढ़ साहित्य के कारण ही बनी है, बाल-साहित्य के कारण नहीं बनी।डॉ विमला भण्डारी अपवाद हैं, जिन्होंने प्रौढ़ों के लिए कहानी, नाटक,सम्पादन आदि साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा है और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है तो बच्चों के लिए लिखे साहित्य के कारण साहित्य-जगत उन्हें पहचानता रहा है।
1. औरत का सच
  डॉ. विमला भंडारी का कहानी-संग्रह औरत का सचनारी केन्द्रित है। यह उनका पहला कहानी-संग्रह है, मगर इस संकलन की सारी कहानियों के कथानकों में आधुनिक समाज का दर्पण साफ झलकता है। जिसमें प्रतिबिम्बित होते हैं प्रेम, प्रेरणा, पलायन, प्रतिबद्धता, विरक्ति, असारता, क्षण-भंगुरता, दर्द, टीस बहुत कुछ। जहां सत्यं शिवं सुन्दरम' कहानियों में नारी कहीं पर धुरी है तो कहीं पर परिधी तो कहीं-कहीं वह पेंडुलम की तरह इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। सारी कहानियां बहुत कुछ सीखा जाती है। दोनों संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना।  
गोमती का दर्दएक ऐसी बूढ़ी गाय की कहानी है जो अपनी आत्म-कथा पाठकों के समक्ष रखती है। जिस तरह प्रसिद्ध साहित्यकार गिरीश पंकज की अद्यतन पुस्तक गाय की आत्म कथापढ़कर छत्तीसगढ़ के कई मुसलमानों लोगों ने न केवल गाय का मांसाहार खाना छोड़ दिया, वरन गाय की रक्षा के लिए प्रवचन देना भी शुरू किया। ठीक इसी तरह गोमती का दर्दगाय मारने वाले तत्त्वों में अवश्य कुछ कमी लायेगी और उसके अंतरात्मा की आवाज समझने में मदद करेगी। गोमतीगाय की काया में प्रवेश कर उसकी आत्मा में अपनी आत्मा मिलाकर लेखिका ने उसके दुख, अंतर्द्वंद्व सहानुभूति और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का यथार्थ चित्रण किया है, वह पाठकों को प्रकाशित किए बगैर नहीं रह सकता।  आधुनिक वातावरण में पढ़ी-लिखी बहू जहां उसके प्रति घृणा, उपेक्षा के भाव रखती है, यहां तक कि उसके मरने के बाद भी मृत देह उठाने के लिए आए मेहतर के साथ मोल-भाव करती है, जबकि सास का व्यवहार पूरी तरह उल्टा होता है। जब बहू उसे खेत भेजने के लिए षड्यंत्र करती है तो वह कहती है, ‘‘मैं भी वृद्ध हूं, मेरे भी हाथ पांव नहीं चलते तो क्या उसे भी घर से निकाल दोगे? बिचारी ने पूरी उम्र तुम्हें दूध पिलाया है, गोमती कहीं नहीं जाएगी।’’ इस तरह उन लोगों के सामने वह गोमती के  दूध की इज्जत रख लेती है। कहने का तात्पर्य यह है कि साधारण जनमानस में जैव-मैत्री का संदेश देती लेखिका की यह कहानी कथ्य, कथानक और शैली में अत्यन्त ही अनुपम है।
इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी अनुत्तरित प्रश्नपाठकों के सामने ऐसे प्रश्न छोड़ जाती है जिनके किसी के पास जवाब नहीं है। एक दलित परिवार की कहानी है, जिसमें एक चपरासी पति शराब का आदी हो जाता है और घर में ऐसी नौबत आती है कि पत्नी को दूसरों के घर बर्तन मांजने का काम करना पड़ता है। इतना ही नहीं, अहसान मानने की बजाय वह अपनी पत्नी को जलील करने लगता है। उसे मारने-पीटने लगता है। ऐसी अवस्था में जो औरत अपने सुहाग की रक्षा के लिए रात-दिन भगवान से प्रार्थना किया करती थी, वही औरत गुस्से में आकर उसकी मृत्यु के लिए मन्नत मांगने लगती है। इंसान के बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बदलते मनोभावों जैसे वेदना, व्यथा, आशा, आकांक्षा आदि का लेखिका ने सशक्त-भाव से वर्णन किया है।
अभी जन्मदिन के गुलाब जामुनकहानी तो प्रेमचंद की बूढ़ी काकीकी याद दिला देती है। बेटे का जन्मदिन है, पार्टी का आयोजन हो रहा है। दूर-दराज के दोस्त लोग बधाई देने आ रहे हैं उन्हें गुलाब जामुन और तरह-तरह के व्यंजन खिलाए जा रहे है। मगर दादी को? शायद भूल गये वे लोग। अपनी गलती का अहसास तो तब होता है, जब पींटू रसोई घर में से छिपाकर गुलाब जामुन अपनी दादी के लिए ले जाता है। तब जाकर बेटे-बहू को अफसोस होता है और वे दादी से क्षमा याचना करते है। अक्सर हमारे परिवार में बुजुर्गों के प्रति हो रही अवहेलना को उजागर करती इस कहानी का मुख्य किरदार इतना प्रभावशाली है कि किसी भी संवेदनशील पाठक की आंखों की कोरों से आंसू टपके बिना नहीं रह सकती।
आजकल राजनीति में महिला-आरक्षण की बात हमेशा चर्चा में रहती है, मगर जब वास्तविकता में कोई अनपढ़ महिला राजनीति में प्रवेश करती है तो उसके पिता हो चाहे पति अपनी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं व मंशाओं की पूर्ति के लिए अपनी आशा, आकांक्षाओं व निर्णयों को उस पर थोपते है। भले ही, उन निर्णयों पर वह राजी न हो। उसके लिए तो एक ही मंत्र रहता है चुप रहो।डॉ. विमला भंडारी की कहानी तुम चुप रहो!में लेखिका ने राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु पति और पिता दोनों द्वारा अनपढ़ महिला राजनीति पर अपने निर्णय थोपते हुए उसे चुप रहने के लिए कहते है व बोलने पर झिड़कते है।
आमंत्रणकहानी में एक अलग कथानक है, जो किसी स्त्री के रजस्वला न होने की बीमारी से समाज, घर-परिवार, सगे-संबंधियों द्वारा उसके प्रति जिस तरह भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है उससे ज्यादा तो वह अपने आप घुट-घुट कर अपनी परिधि में सिमटकर संकीर्ण होती जाती है। इस तरह के अनछुए कथानकों का चयन करने के लिए लेखिका का व्यापक दृष्टिकोण, संवेदनशीलता, भाव-प्रवणता और चिंतन-मनन प्रशंसनीय है, वहीं उनकी भाषा-शैली उतनी ही प्रबुद्ध, सशक्त व पठनीय है। इस कहानी में दो बहिनें हैं, बड़ी बहिन कामिनी और छोटी बहिन माधुरी। बड़ी बहिन का गर्भाशय अपरिपक्व है इसलिए वह रजस्वला नहीं हो सकती है। इस तरह उसे शादी की आवश्यक शर्तों के बारे में जानकारी नहीं  होती है। कामिनी की पहले शादी न करके मां-बाप माधुरी की शादी कर देते हैं, जिससे वह भीतर से पूरी तरह टूट जाती है। जब उसे अपनी इस बीमारी के बारे में पता चलता है तो डाक्टर से सलाह-मशविरा करने जाती है, मगर इस प्राकृतिक कमी का कोई इलाज हो तब न! उसे अपने बांझपन का अहसास हो जाता है। जब किसी पत्रिका में छपे विज्ञापन किसी से पुत्रों के विधुर पिता के लिए निःसंतान या बांझ कन्या चाहिएको पढ़कर उसका मन अनजानी खुशी से झूम उठता है मानो उसे ऐसे एक नए जीवन का आमंत्रण मिला हो, जिसमें वह केवल पत्नी ही नहीं बन रही है, वरन मां भी बनने जा रही है। लेखिका की यह कहानी पूरी तरह नारीवादी है। एक अरजस्वला नारी के मन पर क्या बीतती है, उन विचारों का अत्यंत ही सूक्ष्म तरीके व मनोवैज्ञानिक ढंग से लेखिका ने विश्लेषण किया है।
इस कहानी-संग्रह के शीर्षक औरत का सचवाली कहानी सही में इस संग्रह की सर्वोत्कृष्ट रचना है। लेखिका ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिक भारतीय समाज का एक ऐसा खाका खींचा है जिसमें विधवा नारी के साथ पीहर में भेदभाव, उसके बच्चे या बच्चियों को बात-बात में यह अहसास दिलाना कि वे उस घर पर एक बोझ-स्वरूप है तथा शीघ्रातिशीघ्र उसका पुनर्विवाह करवा कर छुटकारा पाये जाने की यथार्थ घटनाओं को स्पर्श किया है और वही वास्तव में किसी भी भारतीय औरत का सचहै।  सुम्मी एक विधवा नारी है। उसकी बेटी है कुंती। वह अपने पीहर में रहकर जीवन-यापन करती है। एक बार उसकी दीदी बच्चे राहुल समेत पीहर आती है। राहुल और कुंती में किसी खिलौने को लेकर लड़ाई होती है, तो सुम्मी अपनी बेटी कुंती का पक्ष लेती है तो उसकी दीदी उसके विधवापन का अहसास कराती है। जबसे उसने घर में पुनर्विवाह के लिए इंकार किया है, तभी से सारे घर वालों का व्यवहार उसके प्रति बदलने लगता है। सभी यही चाहते है कि वह विवाह करके चली जाएं, भले ही, अपनी बच्ची को वहां छोड़ दे। मगर सुम्मी अपनी बच्ची को किसी भी हालात में वहां छोड़ना नहीं चाहती है। तकदीर से उसकी एक विधुर आदमी से शादी हो जाती है, जिसके खुद दो-तीन बच्चे होते है। वह उसे अपनी लड़की समेत स्वीकार कर लेता है। मगर जब वह अपने ससुराल जाती है और कुंती को अपने साथ लेकर सोती है सीने से छिपाकर तभी पतिदेव का आदेश होता है कि कुंती उसके दूसरे बच्चों के साथ सुलाने का। आखिर में वह मन-मसोस कर कुंती को अपने पीहर में छोड़ने का निर्णय लेती है। यही है औरत का सच। इस सत्य पर आधारित कहानी में लेखिका ने घर के स्वार्थ पर आधारित रिश्तों को उकेरते हुए किसी भी असहाय नारी की सामाजिक जिंदगी का बारीकी से मनोविश्लेषण किया है।
तराशे हुए रिश्तेमें एक बुजुर्ग बहिन अपने लीवर कैंसर ग्रस्त भाई को राखी बांधने घर जाती है, तो अपने भाई की वहां उपेक्षा देखकर उसका मन विचलित हो जाता है। उसे पानी पिलाने के लिए बहू की जगह नौकर आता है ओर जब बहू घर आती है तो उसके मायके से राखी के अवसर पर मिले सामानों का प्रदर्शन करने से नहीं थकती है वह। इस प्रकार लेखिका ने समाज में ह्रास होते मूल्यों की ओर पाठकों का ध्यानाकृष्ट किया है कि किस तरह बाहरी चमक-धमक व प्रदर्शन में कभी तराशे हुए रिश्ते अपनी अहमियत खोते चले जाते है।
‘....और समीकरण बदल गएकहानी दहेज पर आधारित एक कहानी है, जिसमें गणगौर पर सुनाई जाने वाली शिव पार्वती कथा को शामिल कर लेखिका ने यह स्पष्ट किया है, जब शिव अपनी पार्वती पर अत्याचार करने से नहीं चूके तो आधुनिक समाज के लिए क्या बड़ी बात है। जहां पार्वती शिव के लिए सोलह पकवान व बत्तीस व्यजंन परोसती है ओर खुद अपना व्रत राखकी पींडियां खाकर खोलती है। वहां एक साधारण नारी दहेज-पूर्ति के लिए क्या त्याग नहीं कर सकती है। गणगौर के अवसर पर  जब कहानी की नायिका का पति उससे अपने भाई से स्कूटर लाने के लिए कहता है, तो वह अपने पीहर जाने का फैसला बदल देती है, ताकि कम से कम भैया-भाभी की गणगौर बर्बाद न हो जाए, भले ही, कुछ समय के लिए मां-बाप को उसकी कमी क्यों न खले। इस तरह आधुनिक शिक्षित नारी दूसरों के सुख के लिए अपने समीकरण बदल देती है।
रंग जीवन में नया आयो रेकहानी में एक मां द्वारा अपनी बच्ची के शोषण की अनोखी दास्तान है। घर का सारा कामकाज करती है टुलकी, उसके बावजूद भी घर वालों का उस पर अत्याचार, उपेक्षा और शोषण। मां नौकरी करती है, इसका अर्थ ये तो नहीं होता है कि वह अपनी बेटी की घोर-उपेक्षा करें। बालों में जूं न पड़े, इसलिए उसके बाल छोटे करवा दें। घर के कामकाज के कारण जब वह परीक्षा में फेल हो जाती है तो भी सारा दोष उसके सिर मढ़ दिया जाता है। स्नेह का आंचल न पाकर उसका मन कुढ़ने लगता है और साथ ही साथ, कठोर भी होने लगता है। वह जल्दी से जल्दी शादी करके नए जीवन में प्रवेश करना चाहती है। मायके से विदा होते समय जहां माता-पिता, भाई और बहिन की आंखों में आंसू होते है, वहां टुलकी की आंखें खामोश होती है। उसकी आंखों में कोई नमी नहीं दिखाई देती है। उसकी खामोशी कह रही है, मानो किसी बंद पिंजरे की मैना अपनी ऊंची उड़ान को तैयार हो और उस ऊंचाई का स्वागत भला आंसुओं से कैसे कर सकती है।
मर्यादाओं के घेरे मेंमें कहानी नायिका की छद्म मर्यादाओं की परिधि में फंसे रहने के कारण उसकी आंखों के सामने पति द्वारा किए जा रहे व्यभिचार को बर्दाश्त करते हुए भी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर पाती हैं, जबकि उसके घर दिहाड़ी मजदूरी पर काम करने वाली गरीब छबीली अपने शराबी पति के दूसरी लुगाई लाने पर अपने प्रेमी के साथ भागने का साहस रखती है। एक उच्चकुलीन वधू को हमेशा मर्यादाएं घेरे रहती है, जिस घेरे के नीचे दबा उसका नारी मन क्यों नहीं बुरी तरह लहूलुहान हो जाए। जिस तरह बोरवेल (ड्रिल) मशीन पृथ्वी का दोहन करता है मगर कब तक? जब तक कि बूंद पानी क्यों न चूस लिया जाए। उसी तरह परिजन, सगे संबंधी, मित्र आदि हमारी जिंदगी का दोहन करते हैं जब तक कि उनकी स्वार्थ-पूर्ति के लिए कोई कसर बाकी न रह जाए। लेखिका की कहानी मोड़ परइसी कथानक का विस्तार है। इस कहानी में नीलप्रभा एक शिक्षिका है जो घर के कामकाज करने के साथ-साथ नौकरी भी करती है। तीन-तीन बच्चे, देवर-नन्द, सास-ससुर सारी जिम्मेवारियां बखूबी वह निभाती है, मगर घर-परिवार के उन सेवाओं का कोई मूल्यांकन नहीं होता है जबकि नौकरी में शिक्षक-दिवस पर उसकी कर्मठता को सम्मानित किया जाता है। उसके विद्यार्थी अपने आप पर उनके शिष्य कहे जाने पर गर्व अनुभव करते हैं। जबकि उसका पति और बच्चे उसका पदोन्नति  होने पर भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने का आग्रह करते हैं ताकि मिलने वाली भविष्य-निधि, ग्रेच्युटी, पेंशन से उनके स्वार्थों की पूर्ति की जा सके। नया मकान बनाया जा सके, बेरोजगार बेटे को भी कहीं एडजस्ट किया जा सकें। नीलप्रभा की इच्छा को  जाने बगैर सभी को अपनी-अपनी पड़ी रहती है। यही है दुनिया की रीत, पृथ्वी का दोहन तब तक किया जाएगा, जब तक कि पानी की आखिरी बूंद उससे सोख न ली जाए। तब नीलप्रभा एक ही बात कह उठती है मेघाच्छन्न आसमान से ‘‘यदि तुम समय से बरसते रहो और अपना जल बरसाते रहो तो यूं धरती की छाती फोड़ उसके भीतर सलिल का दोहन न हो।’’
उजाले से पहलेएक ऐसी मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो मन के किसी भी शक्ल, हुलिया या बाहरी रूप को देखकर ग्रंथि घर कर जाती है कि वह आदमी बुरा है या अच्छा। जबकि हकीकत में उससे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। अनु किसी टकले, ऊंचे कद-काठी और कसरती बदन वाले आदमी को खलनायक समझ बैठती है। उसे लगता है कि वह बहुत बड़ा गुंडा हैं चाकू और पिस्तौल की नोंक पर उसे अगुवा कर सकता है। उसके पति को मार सकता है और उसके सतीत्व को लूट सकता है। रेस्तरां में खाना खाते समय होटल के परिसर में चहलकदमी करते उस आदमी को देखकर उसे लगता है कि वह अवश्य उसका पीछा कर रहा है। मगर उसे पता चलता है कि वह एक प्रसिद्ध हाट सर्जन है और दो दिन के लिए हर बार गोवा आते है कल्पना नर्सिंग होम में अपने पेशेंट देखने। तब अनु बुरी तरह झेंप जाती है और साथ ही साथ निरुत्तर भी। इस तरह लेखिका ने मन में सुषुप्त ग्रंथि या परसेप्शनसे किसी के व्यक्तित्व का आकलन करना गलत बताया है,कोई जरूरी नहीं है कि बाहरी रूपरेखा किसी के अंतस की झांकी का प्रतीक हो।  
इस कहानी संग्रह की अंतिम कहानी मैं......मैंएक अनोखी कहानी है। पारंपरिक कहानियों से एकदम पृथक। वह विश्व-बंधुत्व बेचना चाहता है, मगर कोई नहीं खरीदता है। मगर जब कोई दूसरा अस्त्र-शस्त्र बेचना चाहता है तो देखते-देखते वहां लोगों की कतार लग जाती है। दूसरे दिन वह फिर दया, ममता, करुणा आदि की साकार प्रतिमाओं के विश्व-बंधुत्व की पोटली रखकर बेचने लगा, तो प्रकृति की वे ललनाएं जैसे ही उसे खरीदने लगी, वैसे ही युद्ध-देवी की दानवी काया उन्हें धमकाने लगती है कि जहां तुम्हारे पुरुष हथियारों के जखीरे खरीदने लगे है ओर तुम लोग? फिर विश्व-बंधुत्व को कोई नहीं खरीदता है। जब वह बच्चों को बेचना चाहता है तो गुब्बारे वाले, मिठाई वाले, चाकलेट वाले, समोसे वाले सभी उसके रास्ते की रुकावट बन जाते हैं। अंत में तीसरे दिन पक्षियों का एक झुंड विश्व-बंधुत्व की पोटली खरीद लेता है, यह कहते हुए ‘‘हमारी नजरों में समूचा विश्व एक है। न कोई आस्ट्रेलिया, न कोई फ्रांस और न कोई ब्रिटेन है। समूची धरती हमारी माता और समूचा आकाश हमारा पिता है। प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य हमारा है। मौसम जब-जब बदलेगा हम एक जगह से दूसरी जगह जाएंगे विश्व-बंधुत्व फैलाएंगे।’’
इस तरह विश्व-बंधुत्व फैलाने के एक ही हकदार है विहंग पखेरू। वे ही सही अर्थों में मानवता के वाहक है। 
इस प्रकार विमलाजी की सारी कहानियां जीवंत व समाज का दर्पण है, जो उनकी लंबे समय तक अनुभव की हुई संवेदनाओं के ताप से तपकर सोने जैसे उज्ज्वल कथानकों के सृजन का असाधारण परिचय देती है।
शीर्षक - औरत का सच
प्रकाशक - अनुपम प्रकाशन, सलूम्बर-राज.
प्रथम संस्करण - 2002 मूल्य - 110/-










2.थोड़ी सी जगह
  डॉ. विमला भंडारी का दूसरा कहानी संग्रह है। यह संग्रह शिल्प, शैली, कथ्य और कथानक की दृष्टि से अत्यंत ही समृद्ध है। भले ही, विमला जी इतिहास की अध्येता रही हो या बाल-साहित्य को प्रथम पंक्ति में लाने के लिए सतत प्रयासरत रही हो, मगर उनके कहानी-संग्रह भी अपने आप में हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी कहानियों में अधिकांश जगह पर स्त्री केन्द्रित होती है, इसके बावजूद भी उनके कथानकों की व्यापकता पात्रों की विवशता और व्यक्तिगत जिंदगी के उतार-चढ़ाव देखने की पारदर्शी दृष्टि पाठकों को स्वतः आकर्षित करती है। इन कहानियों में लेखिका केवल कल्पना-लोक में विचरण नहीं करती है, बल्कि समाज सेविका के तौर कार्य करते समय अपने जीवन के अनुभवों को यथार्थ-पटल पर उतारते हुए पात्रों की स्वाभाविक जीवन-शैली, उनकी भाषा, उनकी भाव-भंगिमा, उनके दृष्टिकोण का बहुत ही सूक्ष्म रूप में विश्लेषण कर अपनी कलम की स्याही से अक्षरों का रूप देती है। कोई भी पात्र झूठे आदर्शों से मंडित नहीं है, बल्कि परंपराओं और आधुनिकता के मध्य संघर्ष करते अपने-अपने समाज, परिवार, गांव, शहर, कार्यस्थल के अनुरूप रचनाकार की कठपुतली बने बगैर परिस्थितियों के अनुसार सारी जीवित क्रियाओं को रूप देते हैं। इस कारण ये  कहानियां पाठकों के हृदय को उद्वेलित करती है, सोचने के लिए झकझोरती है, चिन्तन-मनन करने के लिए विवश करती है। इस कहानी संग्रह में उनकी पन्द्रह कहानियां है और सभी के कथानक पृथक-पृथक हैं
नभ के पंछीकहानी में हरीमन अपने बहू की डिलेवरी को लेकर समाज की सुनी-सुनाई बातों से शंका-ग्रस्त होकर किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में करवाना चाहती है। उसके आम बेचने के पुश्तैनी धंधे की कमाई से पाई-पाई जोड़ती है और अच्छे से अच्छे मेटरनिटी होम में प्रसव-क्रिया हेतु स्वयं जाकर वहां की सफाई-स्वच्छता का निरीक्षण करती है। यहां तक कि दस हजार रुपए की अग्रिम-राशि जमा भी करवा देती है, यह सोचकर पता नहीं, कब बेटे का फोन आ जाए और बहू को लेकर घर पहुंच जाएं। मगर ऐसा नहीं होता है। उनका बेटा खलीफा अपनी बहू के कहने के अनुसार अपनी सास को वहीं पर बुलाकर प्रसव करवा लेता है। तब हरीमन स्तब्ध रह जाती है। उसे लगने लगता है, उसका बेटा खलीफा नभ का एक पंछी बन गया है, पता नहीं किस डाल पर अपना बसेरा बसाएगा। उसकी सारी प्रतीक्षा, मन के सपने, यहां तक कि फलों को ठीक-ठीक पहचानने वाली पारखी नजरें भी धुंधला जाती है। लेखिका ने बदलती पीढ़ी के रवैये तथा माता-पिता की आशा, आकांक्षाओं के प्रति उनकी घटती संवेदनाओं को जीवंत रूप से प्रस्तुत से प्रस्तुत किया है कि हरीमन के पात्र में खोकर पाठकों की आंखें स्वतः अश्रुल हो जाती है। जिस प्रकार जयशंकर प्रसाद की कहानी छोटा जादूगरआज भी ऐसे ही दर्द के लिए स्मरणीय है वैसे यह कहानी भी आधुनिक परिवेश में उसी दर्द की व्याख्या करती है। 
माटी का रंगहिन्दू और मुस्लिम के मध्य प्रेम, भाईचारा और एकता को दर्शाती है। दो सहेलियां शारदा और गुलनारा बचपन में किसी सरकारी स्कूल में एक साथ पढ़ती थी, मगर उनमें कभी बातचीत  नहीं होती थी। बड़े होने पर किसी शहर में उनकी मुलाकात होती है तो सारा बचपन उनकी स्मृतियों में तरोताजा हो जाता है, मगर दुर्भाग्यवश उस कस्बे में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो जाता है, और उन दोनों की दोस्ती पर भी ग्रहण लग जाता है। बातचीत तक बंद हो जाती है। लेखिका ने यहां दर्शाया है कि किस तरह धर्म पुरानी से पुरानी दोस्ती को भी खंडित कर सकता है। एक बार शारदा का बेटा विक्रम और गुलनारा का बेटा सिकन्दर की स्कूल जाते समय बस के सड़क किनारे झील में गिर जाने की वजह से दोनों के परिवारों में मातम छा जाता है, मगर विक्रम और सिकन्दर दोनों एक दूसरे को बचा लेते हैं तथा दूसरे बच्चों की जान बचाने में भी आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस तरह फिर से शारदा और गुलनारा के बीच में सौहाद्र्राता स्थापित करने के लिए लेखिका ने इस मोड़ का यहां जिक्र किया, जो धर्म से परे अपनी माटी की गंध को याद दिलाते हुए दोनों के बीच पहले जैसा संबंध स्थापित हो जाए। यही है माटी की गंध, माटी का रंग। व्यक्तिवाद को धर्म से श्रेष्ठ घोषित करते हुए लेखिका एक जगह लिखती है- ‘‘झगड़ा तो हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ था। हमारे बीच तो नहीं।’’
लकी ग्रीनएक ऐसी कहानी है, जो समाज में व्याप्त रूढ़िवाद, कर्मकांड-पाखंड, अंधविश्वास को खुली चुनौती देती है। इस कहानी में लकी ग्रीन साड़ी पहनने से ही घर की महिलाओं की सगाई होती है, मगर घर की बेटी इस बात को नहीं मानती है। बिना लकी ग्रीन साड़ी के भी उसका संबंध पक्का हो जाता है। इस तरह लेखिका ने देश की जनता को जाग्रत करने के लिए रूढ़िवाद, जड़ता के बंधन, अज्ञान और अंधविश्वास को काटने का आवाहन किया है। आज भी हमारे समाज में यहां तक की फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों के नाम के पहले अक्षरों से जुड़ी सफलता और असफलता की मान्यता, पसंद के टेलीफोन नंबर, परीक्षा पास करने के लिए लकी पेन, शगुन के लिए दही की कटोरी, लकी पर्स, लकी हाऊस आदि कई अंधविश्वास हमारे समाज में व्याप्त है। यह कहानी उन पर पर एक करारी चोट है। किस तरह मधुर वचन, आत्मीय संबोधन और व्यवहार बड़े-बड़े से खूंखार, खतरनाक व हिसंक पुरूषों को हृदय को भी परिवर्तित कर देते हैं। उसकी जीती जागती मिसाल दे रही है विमला जी की कहानी किलर। ट्रेन में सफर करते समय सामने बैठे एक हत्यारे को भाई संबोधन करने से किस तरह वह द्रवित होकर लेखिका को लूटने का इरादा बदल देता है।
कहानी सोने का अंडाआधुनिक वैज्ञानिक युग में खो रही मानवीय संवेदनाओं को उजागर करती है। जिसमें एक कलियुगी पति अपनी अनपढ़ पत्नी की कोख को चन्द पैसों की खातिर किराए पर देता है वह भी बिना उसकी पत्नी की अनुमति के। अपने पेट में पनप रहे बीज में अपने रक्त और मांस-मज्जा के संबंध को ताक पर रखकर सेरोगेट मदरवाली धारणा को लेखिका ने अनुचित ठहराया है। कुछ ही वर्ष पहले अभिनेता शाहरूख खान के सेरोगेट मदरसे बच्चा पैदा करने की कवायद पर मुस्लिम धर्म ने घोर आपत्ति जताई थी। ठीक इसी तरह हूîमन क्लोनिंग को लेकर भी आधुनिक समाज के कई वर्ग भर्त्सना करते नजर आते है।
रोशनीकहानी में लेखिका ने मानवीकृत धर्मो के ऊपर मानव धर्म को महत्त्व दिया है। बेसिला बनी संन्यासिनी मांझल कूड़े-करकट बीनने वाले बच्चों को अपने साथ ले जाते अपने पूर्व पड़ोसी अतुल को उनका सहारा बनने तथा भविष्य बनाने के इरादे से कहती है, जब वह पूछता है उन धर्मान्तरण करोगी इनका- ‘‘धर्म? धर्म किसे कहते हैं? ये अबोध जिन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं। जिन्हें कंपकंपाती ठंड में कपड़े भी नसीब नहीं। जिनके सिर पर है नंगा आकाश और पैरों तले ऊबड़-खाबड़ जमीन। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों से भी वंचित है जो वे क्या जानेंगे धर्म को।’’ 
अहसासमें एक गरीब गायक लड़के इन्द्रजीत की मदद करने के स्थान पर झूठे कारण बताकर कहानी की नायिका बरखा ठुकरा देती है, यह कहकर कि तुम्हारी उम्र कम है इसलिए रेडियो वाले तुम्हें नहीं लेंगे। मगर बरखा के व्यक्तित्व का दोहरापन उच्च समाज के मुखौटे को उजागर करते हुए उसका पति इंदर की मदद करता है और उसे एक स्टारबना देता है। यहां तक कि भारत महोत्सवमें गाना गाने के लिए उसका चयन हो जाता है। इस तरह नारी संवेदना के नाम पर अपने आप को धोखा देती बरखा को उसका पति इस बात का अहसास करा देता है कि अभावग्रस्त बचपन देखने वाला साधारण व्यक्ति बिना किसी प्रसिद्धि की चाह के किसी अनाम प्रतिभा को अपने उचित स्थान पर पहुंचा सकता है। 
थोड़ी सी जगहइस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है। ठसाठस बस में अपने बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह पाने के लिए किस तरह श्रुति सीट पर बैठे किसी वृद्ध तथा वृद्धा से मधुरता पूर्वक बातें करती है और बैठने की जगह प्राप्त कर लेती है। धीरे-धीरे वह आराम से बैठने के लिए पूरी जगह ले लेती है। मगर जब वह वृद्ध अपनी कहानी सुनाने लगता है तो उसे नीरस लगने लगती है। और जब उसे पोपले मुंह से पिक की छिटके लगने लगते है तो वह छिः! अनुभव करने लगती है। इस तरह लेखिका ने समाज के उस यथार्थ को उजागर किया है जिसमें कोई भी इंसान जब तक अपनी स्वार्थपूर्ति नहीं होती है, वह गिड़गिड़ाता है। मगर जैसे ही स्वार्थ पूरा हो जाता है वह उसे अपना अधिकार समझकर सामने वाले की अवहेलना करना शुरू कर देता है।
कलियुगी देवतालेखिका की एक ऐसी कहानी है जो एक डाक्टर के अंतर्मन को झकझोरती है। डाक्टर जिसे लुटेरे लोग भी देवता समझते हैं और एक बार सुनसान जगह में लुटेरों से मुठभेड़ होने के बाद भी उनका सरदार रमैया उसे श्रद्धापूर्वक छोड़ देता है कि कभी उसने उसकी बीमार मां का इलाज किया था। मगर उसे क्या पता था वह इलाज एक नाटक था उसकी बीमार मां की किडनी चुराने का। डाॅ. धीरज कुमार के सामने रमैया के तीन रूप प्रकट होने लगते हैं- मां को भर्ती कराने आया गबरू नौजवान,उनके कदमों में नतमस्तक रमैया और लुटेरा मुजरिम रमैया। डाॅ. कुमार के मन में उसकी तुलना में ज्यादा अपराध-बोध जागृत हो उठता ओर उसकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। इस तरह लेखिका ने हर समय अपनी आत्मा की आवाज सुनने के लिए प्रेरित किया है कि हमारे द्वारा किया जाने वाला कौनसा कार्य विधि-सम्मत है अथवा नहीं?
घटाव का जोड़एक ऐसे कंजूस आदमी की कहानी है, जिसे बहिन नहीं होने पर अपार हर्ष होता है और वह सोचा करता है कि कम से कम उसकी वजह से पैसे तो नहीं खर्च होते। जैसे रक्षाबंधन पर उपहार देते समय उसके साले की कितनी फिजूल खर्ची होती है। मगर जब उसके साले की दुर्घटना हो जाती है तो उसकी पत्नी द्वारा की जा रही सही-सलामती की दुआ, मुंह में तीन दिन से अन्न का एक दाना नहीं लेना और आंखों से लगातार गंगा-जमुना बहाकर उसके लिए मन्नत मांगती और गरीबों में उदारतापूर्वक दान देती देखकर उसे अपने सारे जोड़ों की तुलना में यह घटाव ठीक लगा। भाई-बहिन के प्रेम के आगे दुनिया की सारी संपत्ति तुच्छ है। इस बात को चरितार्थ करती इस कहानी की कथ्य-शैली व भाषा-प्रवाह उत्कृष्ट है।
दिव्य लोककहानी ब्रेन ट्यूमर से जूझते फोटोग्राफर पति की बिखरती सुखी जिंदगी को संवारती पत्नी के धैर्य, अटल निश्चय और कर्मनिष्ठा का अनुपम उदाहरण है। ऐसी अवस्था में पत्नी न केवल घर में बच्चों का ट्यूशन करती है वरन अपने पति का बंद पड़ा स्टूडियों खुद फोटोग्राफी सीखकर अपने बलबूते पर खड़ा कर देती है। इस तरह अपने चरमराते परिवार को फिर से स्थापित करने में वह सफल हो जाती है। लेखिका की यह कहानी ऐसे अनेक परिवारों के लिए प्रेरणादायक है जिनके घर-गृहस्थी का बोझ उठाने वाले लोग कारणवश, परिस्थितिवश असक्षम हो जाते हैं तो उनकी गृहिणियां अगर कंधे से कंधा मिलाकर उनकी मदद करें तो परिवार को ऋणग्रस्त होने अथवा कर्ज के बोझ तले डूबने से बचाया जा सकता है।
शर्मसारकहानी जीजा और साली में पैदा हो रहे अवैध संबंधों को देखकर पत्नी द्वारा आत्महत्या करने के कारणों को मनोवैज्ञानिक ढंग से उजागर करती है। बदनामी का अंधेरा आवर्त पास-पड़ौस और समाज द्वारा भर्त्सना, दुख, हताशा और अपराध-बोध का दंश- सब कुछ इस कहानी में देखने को मिलता है।
रीमिक्सराजस्थान के उस प्रवासी परिवार की कहानी है जिनमें बहुएं गुजरात तथा दक्षिण भारत की है। घर के मुखिया श्रीपाल भाई को राजस्थान की संस्कृति से अथाह प्रेम है मगर उनकी पत्नी को राजस्थान की घूंघट-प्रथा, औरत पर पुरूष समाज का हावी होना तथा सास द्वारा किए जा रहे  अत्याचार पसंद नहीं आते हैं। किसी परिजन की शादी के अवसर पर इस परिवार को राजस्थान जाने का मौका मिलता है, तो वहां हुए सांस्कृतिक बदलाव को देखकर मुंबईवासी श्रीपाल अंचभित रह जाते हैं। वह तो अपने परिवार को राजस्थान की संस्कृति से परिचित करवाना चाहता था, मगर वहां की सलवार-सूट, जीन्स-टाॅप, मिडी पहने ब्यूटी-पार्लर की शृंगारित लड़कियों को मोबाइल पर बातचीत करते और एक्सक्यूज मीकहते देख उनके परिवार को आश्चर्य होने लगता है। पुरातन ढर्रे की जगह आधुनिकता पांव पसारने लगी थी। अटैचड लेट-बाथटी.वी. सेट से चिपके बैठे बच्चे-बूढ़े’, ‘इडली डोसा और पाव भाजी’ ‘फिल्मी धुनों पर बनता महिला संगीत’, ‘बिजली के बल्बों में चमकते पंडाल’, ‘पारंपरिक देशी वेशभूषा के साथ-साथ फैशनेबल परिधान’, ‘पारंपरिक विनायक मंगल गीतपुरानी आधुनिक संस्कृति के  रीमिक्स को दर्शा रही थी। कहानी का क्लाईमैक्स तो तब शुरू होता है जब श्रीपाल की गुजराती बहू  राजस्थानी लोकगीत पर राजस्थानी परिधान पहनकर अपने नृत्य प्रस्तुति से सबको चकित कर देती है। दूसरी दक्षिण भारत वाली बहू कत्थक नृत्यांगना होने के बाद भी राजस्थानी गीत ‘‘म्हारी घूमर छे नखराली एं मांएं’’ पर अपना नृत्य प्रस्तुत कर दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से सभी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती है। इस तरह भले ही, श्रीपाल का परिवार राजस्थान प्रवासी था मगर उनके घर में राजस्थान की संस्कृति के प्रति गहरा लगाव था, जबकि खुद राजस्थानी परिवार अपनी संस्कृति से विमुख होते हुए आधुनिक रीमिक्स संस्कृति को अपनाने में लगे हैं।
इस कहानी-संग्रह की कहानी टूटती कलीअत्यंत ही मार्मिक व मनोवैज्ञानिक है। घर में होने वाले छोटे-मोटे झगड़ों के दौरान गैस स्टोव से आधी-जली औरत की एक दर्द भरी दास्तान। जो कभी बचपन में स्कूल के भवन ढ़हते समय तक बाल-बाल बची थी, उस किरण की कहानी। जिसके जलने पर पति ने कास्मेटिक सर्जरी करवाई, उसके पक्ष में बयान देने पर। उसको तलाक देने की एवज में उसे मिला एक बड़ा घर और बहुत सारा धन। मगर उसका विकृत चेहरा, अधजले बाल और ऊपर से जला आधा शरीर उसकी जिंदगी को भयावह बना दे रहे हैं। वह छत के ऊपर जाना चाहती थी, मगर अंधेरे के समय ताकि कोई उसकी तरफ देख न सके। उसका भयावह रूप देखकर दर्पण भी डर जाता था।  कहानी का अंत होता है, माता-पिता द्वारा उसके कमरे में किसी साध्वी को लाकर जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए दृष्टांत सुनाकर। लोक-सेवा, लोक-कल्याण और दुखियों का संबल बनकर उनकी सेवा करना इतना आसान नहीं है, फिर भी दुखी अतीत को भूलकर दुनिया के लिए जीना ही सही अर्थों में जीने का उद्देश्य होना चाहिए। इस तरह लेखिका किसी टूटती कलीका पूरी तरह से टूट जाने से रोककर उसके नए जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हुई दुःखद अतीत को भूलने की प्रेरणा देती है। 
खूबसूरती' कहानी राजनीति में भाग ले रही मान-शान, स्वाभिमान और जमाने के साथ समझौता कर रही महिला-नेत्रियों को अपने क्षेत्र में नई ऊंचाई पाने के लिए अपनी खूबसूरती के साथ बिना किसी प्रकार का समझौता किए। जहां चांदनी जैसी महिला अपने उत्थान के लिए किसी भी प्रकार के पुरुषों का सहारा लेने से नहीं चूकती, उसके लिए वह सब कुछ अपना न्यौछावर करने को तैयार हो जाती है, वही इस समारोह की नायिका मैडम प्रेमा अमृत यह संदेश देती है, हमें आगे बढ़ना है अपने बलबूते पर अपनी कर्मठता से। मगर यह याद रखते हुए कि वे औरतें हैं ओर यही उनकी खूबसूरती है। मगर चांदनी जैसी महत्त्वाकांक्षी महिलाओं के सारे सारगर्भित उद्बोधन, उपदेश मात्र और अवास्तविक लगने लगते हैं। इस प्रकार लेखिका ने बड़ी खूबसूरती से अपनी कहानी खूबसूरतीमें समाज-सेवा और राजनीति में प्रवेश लेने वाली महिला जनप्रतिनिधियों को उन्नत समाज और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए अपनी मर्यादा को बिना ताक पर लगाए नेतृत्व करने की प्रेरणा देती है। 
इस तरह डॉ. विमला भंडारी की सारी कहानियां स्त्री-चरित्र के इर्द-गिर्द विद्वतापूर्ण कथानकों के साथ घूमती हुई नजर आती है।
मेरा ऐसा मानना है कि कहानियों की संवेदनाएं, इनके पात्र, इनके मंतव्य-गंतव्य पाठकों के हृदयों को अवश्य स्पंदित व मुखरित करेंगे।
पुस्तक: थोड़ी सी जगह
प्रकाशक: पराग प्रकाशन, जयपुर
प्रथम संस्करण: 2008
मूल्य: 140 रूपए
ISBN 978-81-904731-6-3
 
 
 




3. सिंदूरी पल

सिन्दूरी पल डॉ॰ विमला भंडारी का अद्यतन कहानी-संग्रह है। जिसमें अधिकांश कहानियां राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित है और उनमें कई जगह मेवाड़ी-राजस्थानी शब्दों का प्रयोग हुआ है। जो पात्रों की आंचलिकता न केवल प्रमाणित करती है, वरन उनकी सहज अभिव्यक्ति की गरिमा व विश्वसनीयता को भी हमारे सम्मुख उजागर करती है। उनकी कहानियों में नारी-हृदय की भावुकता, ममता, आत्मीयता एवं घरेलूपन की झलक साफ देखने को मिलती है। इन कहानियों में लेखिका के जीवन के यथार्थ अनुभूतियों को जीवन्त भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है। 
‘‘तेरे रूप कितने’’ कहानी में एक ऐसी स्त्री के अनेक रूपों का वर्णन है जो अपने चरित्रहीन पति से दूरियां बनाकर अलग रहती है मगर उनकी मृत्यु के बाद रातीजगा किए बिना किसी के घर का पानी तक नहीं पीती है। इस आस्था के साथ कि वह मृत्यु के बाद देवता बनकर प्रकट हुआ है और बहू के शरीर में प्रवेश कर रात्रि जागरणमांगने पर किसी घर का पानी तक नहीं पीने का वचन दिया है। दुश्चरित्र पति के मरणोपरांत इतना अनुराग किसी पतिव्रता स्त्री को छोड़कर किसी और में हो सकता है? अपनी बहू-बेटे से नहीं बनने के कारण वह किसी घर में काम कर अपना गुजारा करती है, मगर उसके अंधविश्वास का फायदा उठाकर उसकी चालाक बहू अपने शरीर में फिर से उस देवता पति के प्रकट होने का बहाना बनाकर अपने घर में काम करवाने के लिए दूसरी जगह काम नहीं करने की आज्ञा देती है। उस देव-आज्ञा के खिलाफ काम करने की हिम्मत कहां उसमें? इस तरह राजस्थान की पृष्ठभूमि वाले गांव की नारी में सहनशीलता, मर्यादा, पतिव्रता, अनुराग, पति-भक्ति, धर्म-भीरूताअंधविश्वास तथा आंतरिक शक्ति के अनेक रूपों का सशक्त वर्णन किया है, जो अपने अतीत इतिहास में पन्ना, पद्मिनी, कर्मावती और मीरा जैसी ललनाओं की स्मृति जीवंत कर जाती है। जिनके सदियों पुराने संस्कार आज की द्रुत-गति से होने वाले शहरीकरण और वैश्वीकरण के बाद भी भारतीय नारियों में विद्यमान है।
इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘स्थगन’’ भले ही एक छोटी कहानी है, मगर भागदौड़ जमाने की आराम परस्त जिन्दगी के लिए कई अहम सवाल छोड़ जाती है। यह जानते हुए कि घर की नौकरानी चोरनी है, एक-दो बार घर के सामान साबुन, अगरबत्ती, माचिस या केसर डिब्बी, पपड़ी यहां तक की नई विवाहिता दुल्हन का पर्स खोलने पर घर वालों द्वारा बहुत लताड़ी गई और उसे काम से निकाल देने की धमकी भी दी गई। लेखिका की सोच में शायद यह प्रतीत होता है कि कुछ आवश्यकता होने के कारण ही वह घर की छोटी-छोटी चीजों की चोरी करती होगी, मगर उसे अचरज का ठिकाना नहीं रहता है जब उसकी मुलाकात अचानक काम वाली से आजाद मोहल्ले में हो जाती है और उसके साफ-सुथरे पक्के दो मंजिला मकान, छोटे पुत्र की वीडियो शूटिंग की दुकान, दो-तीन किराएदार और उसकी समृद्ध स्थिति। लेखिका ने घर से चोरी हुई छोटे-मोटे सामानों को देखकर जब वह उनके बारे में पूछने लगती है तो वह झूठ बोलती है। और वह अब उसे सहन नहीं कर सकती है और उसे निकालने का दृढ़ संकल्प लेती है। तभी छोटी नन्द के परिवार सहित छुट्टियों में उनके घर आने की सूचना मिलती है तो फिर से भुआ’ (नौकरानी) को निकालने का प्रोग्राम स्थगित हो जाता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने दो मनोभावों की ओर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है। पहला, आदमी अपनी स्वतंत्रता, खुशियों तथा घरेलू कामों से बचने के लिए कितना परवश हो जाता है कि वह काम वाली नौकरानी की गलत आदतों को जानकर भी उसे निकालने का पक्का मानस नहीं बना पाते हैं। यह है परवशता। दूसरा, चोरी कोई जरूरी नहीं कि कोई गरीब लोग अपना पेट भरने के लिए या कुछ दुःखद क्षणों में ऐसी घटनाओं को अंजाम देते है। यहां तक कि एक समृद्ध आदमी भी आदतन चोरी कर सकता है। भुआके पास किस चीज की कमी थी। बड़ा घर, बच्चों की दुकानें, अपने घर में किरायेदार की आवक बहुत कुछ ऐसी चीजें है, जो उसके समृद्धिशाली परिवार की पुष्टि करते हैं, मगर वह लेखिका के घर से छोटी-छोटी चीजें जैसे साबुन, सर्फ, आटा-दाल, अगरबत्ती यहां तक संडासी तक चुराने लगती है। यह देखकर यह सवाल अवश्य उठता है, क्या चोरी एक मानसिक बीमारी है? जो केवल बच्चों में वरन बड़ों में उससे ज्यादा व्यापक होती है। चोरी करते पकड़े जाने पर शर्म लाज से  जलील होने के बावजूद भी किस मुंह से वह लेखिका के घर काम करती है। यह है बेशर्मी की पराकाष्ठा। इस तरह लेखिका ने अपने संवेदनाओं को एकाग्र कर समाज में व्याप्त इस तरह के दुर्गुणों, दुराचारों तथा बेशर्मी का पर्दाफाश करते-करते अपनी कमजोरियों के कारण आदमी किस तरह किसी के हाथ की कठपुतली बन जाता है।
संकलन की तीसरी कहानी ताजा अंकएक अलग से हटकर है। मानो अखबार का ताजा अंकअपनी आत्मकथा सुना रहा हो। बोर्ड की परीक्षा परिणाम के उसने पृष्ठों का फैलाव और उस पर अचानक पानी से गीले होकर भीग जाने पर अपने अतीत में झांकने की याद दिलाता है। वह सोचने लगता है कभी ऐसा भी जमाना था कि भागवंती और कृष्णा के बीच पहले मुझे पढ़ने की होड़ मचती थी। भागवंती कम उम्र में विधवा हो जाती है और कृष्णा उसके दूर का रिश्तेदार होता है, और भागवंती को आगे पढ़ाने के लिए वह अपनी तरफ से भरसक प्रयास करता है। रोज-रोज वह मुझे पढ़ता और समाचारों पर दोनों चर्चा करते। धीरे-धीरे समय गुजरता गया। ओर उन लोगों ने अपनी हरिद्वार यात्रा में अखबार के कुछ अंकों के साथ ले जाना उचित समझा, मगर अचानक पानी गिर जाने से मैं भीगकर बिखर गया और फिर वह किस काम का? बर्थ पोंछने और सिवाय खिड़की से बाहर फेंकने तो कभी जूता पोंछने तो कभी हाथ पोंछने के। इस तरह उनसे साथ छूटता गया। हरिद्वार तर्पण के बाद भागवंती और कृष्णा में आकर्षण बढ़ने लगा और धीरे-धीरे प्रेम में तब्दील होने लगा। उसकी सूनी कलाइयों में अचानक से चूड़ियों की प्रगाढ़ता इस बात का संकेत दे रही थी कि उसका वैधव्य-जीवन नई करवट बदलने वाला था। भांगवंती बी.ए. पास कर नौकरी करने लगी। अखबार का उनके घर में आना बंद हो गया, मगर भागवंती स्कूल के स्टाॅफ-रूम में उलट-पलट लेती थी। उसके ताजा अंक पर उनके शादी का विज्ञापन प्रकाशित हुआ। कहीं हर्ष तो कहीं गम तो कहीं आश्चर्य था। अखबार बहुत खुश था। नए-नए प्रतीकों की खोजकर एक अलग कथ्य-शैली में बहुत बड़ी बात कह जाना उनकी एक खास खूबी है। इस कहानी-संग्रह की पठनीयता तो इतनी ज्यादा अच्छी है कि आप बिना किसी अवरोध के लगातार पढ़ते जायेंगे तो अखबार को भागवंती और कृष्णा के संबंधों की पल-पल जासूसी करने वाली कोई तीसरी उपस्थिति वहां अनुभव की जा सकती है। वह भी मार्मिक सह-संबंधों को इस तरह उजागर करने वाली जैसे वह भौतिक शरीरधारी हो। सुख-दुख, ईर्ष्या-द्वेष, मान-अपमान सभी की शृंखलाओं से गुजरते हुए अपनी भावाभिव्यक्ति की अटूट छाप पाठक के मानस-पटल पर अंकित करते हुए भाषा-वैशिष्ट्य की ओर ध्यान आकर्षित करती है।
कहानी आज का दिनका कथानक किसी खूनी फिल्म के दृश्य से कम नहीं है। सुबह-सुबह की बात कुछ नकाबपोश हमलावर किसी आदमी पर 6 इंच तक कील ठुके लट्ठ के तड़ातड़ प्रहार से जानलेवा हमला। बचाने वाला कोई नहीं, तभी आस-पास सफाई करने वाली मेहतरानी की नजर उस पर टिकती है। वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ती है और हमलावरों से अपने बलबूते पर संघर्ष करने लगती है, जबकि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर अपने घर के कोनों में दुबके बैठे मिलते हैं। उसके ललकारने पर कुछेक लोग दरवाजा खोल बाहर आते है और कोई उसे यशोदा मैयातो नवजीवन देने वाली मांजैसे भावनात्मक संबोधनों से आपस में तारीफ करने लगते है, मगर उस आदमी की बेहोशी की अवस्था देखकर जब वह मुहल्लों वालों से पानी की गुहार करने लगती है तो अधिकांश वहां से खिसकने लगते है, कोई कहता है क्यों हम अपना धर्म-भ्रष्ट करें तो कोई कहता है कि सड़क बुहारने वाली स्त्री के क्या मुंह लगना। एक आदमी ने पानी दिया, मगर डिस्पोसेबल ग्लास में पानी भरकर दूर रखते हुए। इस मार-धाड़ की पृष्ठभूमि को लेखिका ने बड़ी बखूबी से यथार्थता को अंगीकार करते हुए पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है, जैसा कि अक्सर होता है कुछ गुंडा-तत्त्वों के हाथ से टेंडर निकल जाए तो वह उसका बदला लेने वाले के खिलाफ साजिश रचकर अथवा अपने बाहुबलियों का सहारा लेकर उसे अपने रास्ते से हमेशा-हमेशा हटाने के लिए कुछ भी कर सकते है, क्योंकि उनके पास राजनीतिक संरक्षण होता है। पुलिस-थाने भी उनके अपने होते है।  यह कहानी पढ़ते हुए मुझे अपने व्यवसायिक जीवन में घटी ऐसी ही घटना की स्मृति ताजा कर गई, जिसमें किसी परियोजना कार्यालय के सामने बने बगीचे के रख-रखाव का टेंडर किसी गुंडे तत्व को नहीं मिलकर किसी भद्रजन को मिलता जाता है। और नतीजा क्या निकलता है, सिवाय कंपनी के रीजनल हास्पीटल में ही दौड़ा-दौड़कर मुक्के, लात, घूंसे, लाठियों की मार से उसके प्राण निकाल दिए। आज तक किसी ने उसका विरोध तक नहीं किया, क्योंकि वे जानते है कि उन्हें बड़े-बड़े महारथियों का सहयोग व वरद्-हस्त प्राप्त है। इस तरह राजनैतिक संरक्षणव बाहुबलियों के तथाकथित कारनामों पर बिना कुछ बोले बहुत सारे जाने-अनजाने सवालिया निशान छोड़ जाते है। इस तरह लेखिका की सूक्ष्म-ग्राह्य संवेदनाओं को रेखांकित किया है। 
नीला रंगकहानी में एक अधीनस्थ कर्मचारी अपने अधिकारी को जिज्ञासावश  पूछता है कि नीला रंगकिस ग्रह का होता है, राहू या केतु का? तथा अपनी जन्मपत्री के खराब होने की जब कहता है तो वह अधिकारी इन सारी चीजों को फालतू का वहम कहकर जन्मपत्री, अंक-ज्योतिष, अंक-गणना, हस्त-रेखा सभी के फिजूल के विषय बताते हुए उसे अपने भविष्य को केन्द्रित कर कार्य करने की प्रेरणा देते है। उसी दौरान वह कर्मचारी अपनी पारिवारिक दास्तान को सुनाता है कि उसकी पत्नी डेढ़ महीने से घर से भाग गई है। अपने ड्राइवर यार के साथ। जिसका साथ विगत 13 वर्षों से उसका याराना चल रहा था। तभी दूसरी तरफ उस अधिकारी के पास फोन आता है कि यह कर्मचारी उसका पति है ओर उसके साथ कुछ ज्यादा ही ज्यादती कर रहा था, इसलिए और वह कुछ भी उसके साथ न तो निभा पाएगी और न ही कुछ सहन कर पाएगी। और वह उनसे न्याय की गुहार लगाने लगी। तभी वह कर्मचारी कह उठता है कि हो न हो यह उसकी पत्नी का ही फोन होगा, मगर यह कैसे संभव होगा? वह तो पन्द्रह दिन पूर्व उसे मारकर अपने हाथों से अग्नि देकर आया था। अधिकारी को इस बात पर जब यकीन नहीं होता है तो मोबाइल में रिसीव काल हिस्ट्री सर्च करने लगता है। उस हिस्ट्री में उसके अधीनस्थ कर्मचारी द्वारिका प्रसाद का ही अंतिम काल सेव था। मगर अभी-अभी आए उसकी पत्नी का काल दर्ज नहीं हुआ था। उसके हतप्रभ होने पर वह कर्मचारी कह उठता है यह है उसका नीला रंगसाब।  बीच-बीच में कहानी के सातत्य को बनाये रखने के साथ-साथ मनोरंजक बनाने हेतु पतंगे उड़ाने, पेंच लड़ने, पतंग कट जाने वाली घटनाओं का कथानक के पात्रों के मनोभावों से तुलना कर लेखिका ने एक नूतन प्रयोग किया है। मगर अंत में एक रहस्य का पर्दाफाश पाठकों के लिए छोड़ दिया है कि उसके मोबाइल द्वारा पत्नी का फोन सेव क्यों नहीं हुआ? क्या जब वह कह रहा है कि उसने अपनी पत्नी को मार दिया है, उस अवस्था में फोन पर कोन बात कर रहा था? वह या उसकी आत्मा? तरह-तरह के रहस्यमयी उलझनों में फंसकर वह रह जाता है। उन्हीं अनसुलझी उलझनों को वह कर्मचारी यह नीला रंग है साब कहकर अपनी कहानी का पटाक्षेप करता है। विज्ञान के अनुसार सूर्य की किरण में सात रंग होते है, बैंगनी, नीला,आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल रंग। सभी की तरंग-दधैर्य नियत होती है, जिसे किसी प्रिज्म के द्वारा आसानी से निकाला जा सकता है। जहां लेखिका ज्योतिष शास्त्र के अंग-उपांगों से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है, वही वह नीले रंगकी रहस्यमयी उपस्थिति से पाठक के सामने अनसुलझी पहेली छोड़ जाती है कि क्या भूत-प्रेत भी हो सकते है? आजकल पुरानी हवेलियों में तरह-तरह के वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से वैज्ञानिक विभिन्न रंगों के माध्यम से फोटो लेते हुए उसका विश्लेषण करते है कि अलग-अलग कलर सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा के प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे कंप्यूटर उनके ग्राफिक्स बनाते है, मगर अभी तक ये सारे प्रयोग किसी तरह के ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे है सिवाय किसी विशेष शोध-पत्र की तैयारी के। इस कहानी के निर्माण के पीछे लेखिका के दिमाग में जो भी उद्दिष्ट कारण रहे होंगे या जो भी आस पास पृष्ठभूमि रही होगी, उन्होंने पाठकों को खुद से यह प्रश्न पूछने का आवाहन किया है कि क्या वैज्ञानिक धरातल पर ही सारी अनसुलझी पहेलियों का समाधान किया जाए या विज्ञान से परे भी कुछ दूसरा विज्ञान होता है? हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है, जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से आध्यात्म की शुरूआत होती है। लेखिका का उद्देश्य समाज में अंधविश्वास फैलाना कतई नहीं है, बस उन पर वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेते हुए रहस्य की तह तक पहुंचने का निवेदन है।
मन मंदिरकहानी में लेखिका ने मेवाड़ी-राजस्थानी के अनेकानेक व्यंजक शब्दों का समावेश कर हिन्दी को समृद्ध बनाने का ठीक उसी तरह प्रयास किया है, जिसे कृष्णा सोबती ने अपने कहानी संसार में पंजाबी शब्दों की भरमार तो फणीश्वरनाथ रेणुने बिहारी भाषा के शब्दों को पिरोकर स्थानीय रंगत तथा आंचलिक प्रभविष्णुता को हिन्दी-सागर से जोड़ते हुए उसके विस्तार हेतु अथक व अनुकरणीय प्रयास किया था। बजरंगी एक मजदूर का बेटा है और वह भी पोलियो से ग्रस्त। पढ़ाई करने के साथ-साथ महीने में वह दस बारह दिन मकानों के निर्माण हेतु दिहाड़ी मजदूरी का काम करता है, और तो और खेत की फसलों की कटाई-ढुलाई का काम न देखने के लिए अपने पिता के ताने सुनने पड़ते हैं वह घर छोड़कर कहीं भाग जाने की सोचता है कि रास्ते में उसकी मुलाकात अपनी सहपाठी मगनी से हो जाती है। वह गांव के वार्ड पंच की बेटी है। पढ़ने में अव्वल। सरकार ने उसे चलाने के लिए साइकिल भी दी है। जब मगनी उसे स्कूल जाने की सलाह देती है तो वह खीझ उठता है। मगर जब वह उसके सामने अपना मोबाइल निकालकर हैलो कुण?’’ कहकर अपने दोस्तों से बतियाने लगती है तो बजरंगी के इरादे भी बदल जाते है। न वह घर जाना चाहता है और न वह स्कूल। उसे भी ऐसा ही एक मोबाइल चाहिए। उसे पाने के लिए वह अपनी गायक मित्र मंडली के साथ मिलकर रामदेवरा घूमने की योजना बनाते है, ताकि खाने के लिए रामरसोड़े भी मिल जाए, साथ ही साथ घर वालों को एक सबक मिल जाए उस पर ताना मारने का। मगर उसके मन में तो मगनी का मोबाइल ही घूमता है। बजरंगी का मीठा कंठ होने के कारण उसके सत्संग आयोजन में अच्छा-खासा चढ़ावा मिल जाता है और अपने मन-मंदिरमें बिराजमान मगनी के मोबाइल खरीदने का दृढ़-संकल्प पूरा हो जाता है ओर पहला नंबर वह अमल करते हुए कहता है ‘‘हैलो मगनी, मूं बजरंगी।’’ इस कहानी में लेखिका ने जहां बखूबी से एक मजदूर परिवार के पोलिया-ग्रस्त बेटे के कोमल मनोभावों का सशक्त चित्रण किया है वही उसके कुछ कर गुजरने की हिम्मतवर्धन् के लिए मगनी का मोबाइल एक खास भूमिका अदा करता है। अगर आपके जीवन में कोई सार्थक, सकारात्मक उद्देश्य हो तो आप अवसाद की अवस्थाओं को पार करते हुए जीवन की कठिनाइयों का सफलता से सामना कर सकते हो।  लेखिका ने मेवाड़ी शब्दों जैसे जीमना पांव’ (दायां पांव), ‘नौरतां’ (नवरात्रि), ‘लीमड़े की लीली कामड़ी (नीम की हरी टहनी), ‘जातरूं’ (यात्री लोग), ‘चलो आज संज्या से पहले ही पूगा जाय’ (शाम से पहले पहुंचना), जैकारे (जय का उद्घोष), ‘मोड़ो होवै है’ (विलंब हो रहा हैं), ‘हेलो कुंण? मूं बजरंगीजैसे शब्दों व वाक्यांशों में आंचलिकता के प्रभाव की नई जान फूंकी है। वरन वहां के लोकजीवन, लोक-संस्कृति को हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रभावी शैली में प्रस्तुत किया गया है। विश्व के बड़े-बड़े साहित्यकारों का भी यह मानना है कि किसी भी रचनाकार को उसके अंचल से जुड़कर लिखना ही एक कालजयी कृति को जन्म देती है, जिस अंचल के आबोहवा ने उसके व्यक्तित्व निखारने के साथ-साथ उसकी सृजनधर्मिता की बंजरभूमि में नए-नए पौधों को लहलहाने के लिए अनुकूलित वातावरण प्रदान किया हो। कल्पनाशक्ति को आधार बनाकर किया जा रहा साहित्य सृजन एक जुगनू की तरह होता है, जो कुछ समय के लिए अवश्य रोशनी देता है, मगर फिर बुझ जाता है। साहित्य का ध्रुव तारा बनने के लिए आपको अपने अंचल पर अच्छी पकड़ होने के साथ-साथ यायावरी जीवन सर्वश्रेष्ठ लेखन को जन्म देता है। ऐसा ही सब-कुछ मिलता है डॉ.विमला जी के सृजन में।
पहली बारकहानी में लेखिका ने टेनिस खिलाड़ी सिलबट्टो को टी.बी. से लड़ रहे बीमार पिता के इलाज के लिए डाॅ. कान्ता प्रसाद (रेडियोलोजिस्ट) स्वयं सिलबट्टो के खेल से प्रभावित होकर उसके प्रशंसक बन पचास हजार रुपये उपहार में देकर उसे केवल भारत के लिए टेनिस में गोल्ड मेडल लाने की अपेक्षा रखते है। जबकि वह उसे मैच फिक्सिंग के लिए उकसाने वाला कोई कदम समझकर मन ही मन एक विचित्र अपराध-बोध के तले दबती चली जाती है। तरह-तरह की शंकाओं की काली छाया उसका पीछा करती है, उसकी रगों में खून सर्द होकर जमने लगता है। मगर जब वह डरते हुए लिफाफा खोलकर देखती है, तो डॉ॰कान्ता प्रसाद ने उसके नाम यह संदेश भेजा है कि तुम्हारा लक्ष्य देश के लिए गोल्ड-मेडल जीतना है, अपने पिता की सारी चिन्ता छोड़कर। वे शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेंगे। इस आधुनिक जमने में इस तरह की घटनाएं लाखों में एक आध ही होती है, यह सोचकर सिलवेनिया अर्थात सिलबट्टो पहली बारअनुभव करती है कि कभी-कभी भगवान किसी की मदद करने के लिए तरह-तरह के रूप धारण कर प्रकट होते है। डाक्टर स्वयं मरीज पिता की रक्षा कर उसकी खुद्दार टेनिस खिलाड़ी बेटी का प्रशंसक बन कर मदद करने के लिए आगे आते हैं।
विश्वासकहानी में लेखिका ने एक सार्वभौमिक सत्य को एक उदाहरण के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए सुसाइड कर रही सुखबीर को बचा लेती है। वह सत्य यह होता है, विश्वास पर दुनिया कायम होती है। जब विश्वास टूट जाता है तो दुनिया खत्म हो जाती है। जो उदाहरण इस कहानी में आता है वह यह होता है। दुर्भिक्ष के समय में मां-बाप अपने बच्चों को घर में अकेले छोड़कर अपना जीवन-यापन करने के लिए कहीं दूर चले जाते हैं। यह आश्वासन/विश्वास दिलाकर कि वे उनके लिए रोटी लेने जा रहे हैं। जब वे छः-सात महीने बाद घर लौटते है, यह सोचकर कि बच्चे मर गये होंगे। मगर तब तक बच्चे जिन्दा थे। जब उन्होंने पूछा कि क्या वे रोटी लाये? जैसे ही मां-बाप ने मना किया, वैसे ही उनके प्राण-पखेरू उड़ गये। कहने का अर्थ यह होता है विश्वास पर ही दुनिया टिकी हुई होती है। इसी तरह सुखबीर को अपने पति को बिना बताए अपनी दीदी के साथ उसका मकान देखने चली जाती है तो उसका पति सामान पैक करके उसके पीहर पहुंचा देता है। इस कारण वह आत्महत्या करना चाहती है,मगर जब लेखिका का यह कथन कि अपने आपको निर्दोष साबित करने के लिए भी जीवित रहना पड़ता है, अन्यथा मरने के बाद कलंक को निर्दोष साबित करने का अवसर नहीं मिलता है। ‘‘मरने के लिए भी तुम्हें इतनी तत्परता, सुखबीर?’’ जैसे कठोर शब्दों का प्रयोग उस अवसादग्रस्त इंसान को यथार्थ धरातल पर लाने के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है। किसी भी इंसान के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने व जानने के लिए कुछ मूलभूत दार्शनिक विचारधारा को अपनाना जरूरी होता है, ताकि उसे विषय परिस्थितियों में भी साहसपूर्वक संघर्ष कर सकें। यही ही नहीं, लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से पति-पत्नी के बीच विश्वास की मजबूत डोर बंधी रहने का आवाहन किया ताकि सुखमय जीवन बिताया जा सकें।
आरोह-अवरोहमनुष्य के मन के अंतर्द्वंद्व की स्थिति को प्रस्तुत करता है, जब वह अपने प्रिय परिजन से कभी बिछुड़ना नहीं चाहता है और एक समय ऐसा आता है कि वह उसे मुक्त कर दें, इनकी ये हालत मुझसे देखी नहीं जाती। ईश्वर से जीवन मांगना अगर आरोह है तो उसकी मौत मांगना अवरोह। जबकि दोनों ही अवस्थाओं में साक्षी एक है।
हूककहानी एक मां के सीने में बारबार पैदा होने वाले दर्द का बयान करती है जब बेटा पहली बार घर छोड़कर बाहर पढ़ने जाता है तो बार-बार उसका मन बेटे के हाॅस्टल में रहने, खाने-पीने की सुविधा-असुविधा में उलझकर भीतर-ही भीतर एक हूक महसूस करती है। पिता के मरने के बाद बेटे के विदेश जाने का सपना टूट जाने पर जब वह आक्रोशित होकर अपनी मां से यह कहता है, काश! तुम्हारी व दीदी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं होती तो..... मैं भी किसी विदेश फर्म में काम कर रहा होता। इस प्रकार के कटु शब्द फिर से एक बार उसके हृदय में हूक को जन्म देती है। हद तो सबसे ज्यादा तब होती है, बेटा किसी काम से चीन गया होता है तो मां उसके बारे में सोचते-सोचते परेशान हो जाती है कि कहीं और किसी दूसरे आयोजन में तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह इंतजार करती रहती है, जितना जल्दी उसका बेटा लौटकर उसे मिलने आए? बेटा चीन से एक दिन पूर्व लौटता है तो मां के पास नहीं जाकर वह अपनी पत्नी व परिवार को ज्यादा अहमियत देते हुए अपने घर में रहना उचित समझता है। फिर से मां के हृदय में पैदा होने लगती हे हूक 
बड़े साईज की फ्राॅकएक ऐसे गरीब परिवार की दास्तान है, जिसे कमला जैसी छोटी-सी लड़की को अपने मां काली बाई के काम पर नहीं आने पर लेखिका के घर बर्तन साफ करने जाती है। जब वह उसे पढ़ाने की बात करती है तो वह उसे पैसे वालों का चोंचला बताती है तथा उनके लिए ज्यादा बच्चे पैदा करना तो भगवान की कृपा के साथ-साथ उन जैसे गरीब वर्ग के लोगों के लिए पैसा कमाने का एक खास माध्यम भी है। झाड़-फूंक, अंधविश्वास, अशिक्षा, गरीबी, अज्ञान, परिवार-नियोजन के प्रति अविश्वास आदि विषयों पर लेखिका की कलम ने खूब अच्छी तरह से अपने सकारात्मक उद्देश्य को उजागर किया है। लेखिका द्वारा दान में दी गई पुरानी बड़ी फ्राॅक में कमला बहुत छोटी तथा फ्राॅक बढ़ता हुआ नजर आ रहा था कि काश उसकी मां कालीबाई पहले ही आपरेशन करवा लेती तो उसकी असमय मौत नहीं होती और कमला के बचपन को ये दिन नहीं देखने पड़ते।
अचीन्हा स्पर्शमें लेखिका ने जहां दर्शना के नगर अध्यक्ष का चुनाव जीतने के बाद लगातार सन्ध्या-समारोह, उद्घाटनों व मीटिंगों में देर रात तक व्यस्त रहने के कारण अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के तले अपनी छोटी बेटी नंदिता की न चाहते हुए भी उपेक्षा करने लगती है। उसे स्कूल जाने में तैयार करना तो बहुत दूर की बात उसके लिए कविता प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कविता चयन नहीं कर पाने के दुख से उसकी आंखें अकेले में इस अपेक्षा के कारण डबडबा जाती है कि आज उसके पास समय ही समय है मगर नंदिता बहुत दूर उच्च शिक्षा के लिए कब से हाॅस्टल जा चुकी है। और एक वह समय था कि स्कूल के कार्यों में नंदिता मदद मांगती थी, मगर समयाभाव के कारण मदद करना तो दूर की बात, बदले में जोर से वह थप्पड़ भी जड़ देती थी। इसी अचीन्हा स्पर्शको पश्चाताप के रूप में लेखिका ने समाज के मूल्यों के प्रति जवाबदेही व महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के कारण हो रहे लगातार ह्रास को सामने लाकर किस तरह दोनों के बीच संतुलन बनाया जा सके, इस पर ध्यानाकृष्ट करने का प्रयास किया है।
मैं और तुमएक ऐसी कहानी है जो भारतीय समाज की यथार्थता को प्रस्तुत करती है कि पेट में गर्भधारण से लेकर लड़का और लड़की में किए जा रहे भेद-भाव, अंतर तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लेखिका ने गर्भस्थ जुड़वा भ्रूण के जन्म लेने में एक लड़का व दूसरा लड़की बनने पर मां का दुग्धपान, पिता की उपेक्षा, दादी व नानी की नफरत व पक्षपातपूर्ण रवैये किसी तरह एक नवजात लड़की अपनी उदासी, खिन्नता व शिकवे-शिकायत को अत्यंत ही मार्मिक तौर से कथानक के रूप में सामने लाती है।
यद्यपि लिंगभेद पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा जा चुका है मगर डॉ. विमला भंडारी की यह एक नूतन प्रयोग है, जो न केवल पाठकों के कोमल दिलों में एक विशेष स्पंदन पैदा करती है और साथ ही साथ आपको अपने इर्द-गिर्द समाज व परिवेश में जन्म से ही लड़कियों के साथ किए जा रहे भेदभाव के रेखांकन से रूबरू कराती हुई आपके मन में इस तरह के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के प्रति टीस पैदा करती है। आधुनिक समाज में आज जहां लड़का व लड़की दोनों समान है, अगर उन्हें अपनी उन्नति के समुचित अवसर प्रदान किए जाए। दुनिया में शायद कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें महिलाओं ने अपनी अहम उपस्थिति दर्ज नहीं कराई हो।
इस तरह विमला भंडारी की सारी कहानियां जीवन की उन रहस्यमयी संभावनाओं को अभिव्यक्त करती है, जो एक के बाद एक परत-दर-परत खुलती हुई जीवन की प्रक्रिया के सतत सजीव होने का संदेश देती है। यह कहानी-संग्रह एक नारी हृदय के सुकोमल भावों को सिंदूरी रंग के कैनवास पर उकेरती हुई सारे रंगों जैसे क्रोध, लज्जा-भाव के अलग-अलग पलों को साफ-साफ पृथक करती है। इन कहानियों में जहां प्राकृतिक सुषमा का भरपूर वर्णन है, वहां उनकी कलम वीणा-वादिनी के गुंजायमान स्वरों, अनुभव व अभिव्यक्ति के सृजनशील परिधान पहनाकर ऐसे कथ्य व शिल्प को गढ़ती है जो न केवल वैदिक ऋचाओं की तरह श्रवण, मनन चिंतन द्वारा कालजयी होने की ओर अग्रसर होती है, वरन उनकी कहानियों की व्यापकता मानवीय मूल्यों को अंगीकृत कर ममता, आत्मीयता तथा स्थानीय आंचलिक रंगों को सारे ब्रह्मांड में प्रकीर्णित करती है। 
 
पुस्तक: सिंदूरी पल
प्रकाशक: डायमंड प्रिंटिंग प्रेस, जयपुर
प्रथम संस्करण: 2012
मूल्य: 125 रूपए
ISBN: 13-978-93-82275-07-7
 






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