बाल-उपन्यास

अध्याय-दो
बाल-उपन्यास



1.  सुनेहरी और सिमरू
  सुभद्रा पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रब्यूटर्स द्वारा प्रकाशित डॉ. विमला भंडारी का बाल उपन्यास ‘‘सुनेहरी और सिमरू’’ अत्यन्त ही रोचक, रोमांचक तथा प्राकृतिक सुषमा का जीवंत वर्णन प्रस्तुत करती है। सुनेहरी एक तगड़ा-फुर्तीला बाघ और सिमरू दो महीने का मासूम सा गुदगुदा प्यारा भालू का बच्चा। कहानी शुरू होती है एक बर्फीली घाटी से जहां लगातार बर्फ गिरने से सभी जीव-जन्तु अपने अपने बिलों में दुबके रहते है। कई दिनों से कोई शिकार नहीं। भूख से सारे जी-जन्तु बेहाल। कुछ समय बाद मौसम में सुधार होना शुरू हुआ। जीव-जन्तु अपने आखेट की तलाश में निकले। ऐसे ही सुनेहरी भी अपनी आखेट की तलाश में था। उधर भालू का बच्चा नरम-नरम घास पर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हुए अठखेलियां खेल रहा था। इस कहानी में लेखिका की कलम ने जिस धाराप्रवाह भाषा-शैली का प्रयोग किया है पढ़ते समय ऐसा लगता है मानो किसी सुरमयी काव्य का पाठ किया जा रहा हो। हिमालय की बर्फीली घाटियों में वृक्षाच्छादित झुरमुटों के अन्दर सूरज की नरम-नरम किरणों का दृश्य प्राकृतिक चारु-चित्रपट को लेखिका ने इस तरह प्रस्तुत किया कि पाठक स्वयं उस नैसर्गिक यात्रा में जहां खो जाता है, वहीं वह जीवन और मृत्यु के बीच हो रही नजदीकियां और दूरियों की अनुभूतियों को आत्मसात कर रोमांचित हो उठता है। पाठक के शरीर में सिहरन उठने लगती है। वहीं सिमरू के चेहरे पर सुनेहरीबाघ का पंजा लगते ही मुंह लहूलुहान होते अनुभव कर रोंगटे खड़े होने लगते है। एक तरफ कहां आप प्राकृतिक वादियों में घटाओं और ठण्डी-ठण्डी हवाओं का आनंद उठाने में मशगूल होते हैं, वहीं दूसरी तरफ सिमरू जैसे मासूम बच्चे की अपनी जान बचाने के लिए की जा रही दौड़-भाग, टूटे लकड़ी के तने के पुल पर संभल-संभल कर चलते हुए जान बचाने का प्रयास और वहीं दूसरी तरफ सामने बाघ को देख उसकी घिग्घी बंध जाना और भयाक्रांत सिमरू के पेड़ के तने का टूट जाना और तेज रफ्तार वाले प्रपात में जान बचाने का पुनः प्रयास करना, उससे ज्यादा तो सुनेहरी बाघ का नदी के किनारे-किनारे उसका अनुसरण करते हुए फिर से मौत बनकर सिमरू के सामने प्रकट होना, फिर पानी में छलांग लगाकर जान बचाने का प्रयास करना ओर सुनेहरी द्वारा लम्बी छलांग लगाकर एक बार फिर सिमरू पर जानलेवा हमला करना जैसे दृश्य किसी भी संवेदनशील पाठक के रोआं खड़े किए बिना नहीं रह सकते। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग इस कहानी को न केवल चिरस्मरणीय बनाती है, वरन सुषुप्त कल्पनाशील मन को उजागर होने का प्रयास करती है। किसी बाघ द्वारा भालू के बच्चे का शिकार करने जैसी छोटी-सी घटना को जिस प्रभावशाली शैली में डाॅ. विमला भंडारी ने वर्णन किया है, वह देखते ही बनता है। कहानी में एक और रहस्य का पर्दाफाश होता है, वह यह है कि सिमरू सोचता है कि उसके जोर से चिल्लाने कर वजह से बाघ दूसरी चट्टान पर छलांग लगा दी, वरन तथ्य यह होता है कि सिमरू की बचाओ-बचाओ’ ‘मां-मांआवाज सुनकर उसकी मां मौका-ए-वारदात पर पहुंच जाती है और उसकी तेज दहाड़ सुनकर शेर उसे बख्श कर सरपट हो जाता है। डाॅ. विमला की कहानियों में जीवन के अनमोल दर्शन छुपा है, जीवन के उल्लास, मृत्यु के शोक, सामाजिक संबंध तथा निष्कपट प्रेम के आवेग की प्रस्तुति उनकी कहानियों में आसानी से देखी जा सकती है। 
यह कहानी पढ़ते-पढ़ते जब मैं आत्म विभोर हो गया तो मेरी आंखों के समक्ष नीमो मछली की फिल्म घूमने लगी कि उस मछली को किस तरह उसकी मां बाहर निकलने के लिए मना करती है, फिर वह अपने हिम्मत की दाद देते हुए विस्तृत समुद्र की जल-राशि में लुप्त हो जाती है और उसे जहां-तहां शार्क मछलियों के हमले, कछुए के दल, ऊपर बगुलों के झुंड किन-किन खतरों का सामना नहीं करना पड़ता है। ठीक ऐसे ही सिमरू को उसकी मां के मना करने के बाद की वह प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाने के लिए अकेले ही घास पर खेलने-कूदने का दुस्साहस कर बैठता है और शुरू हो जाती है, एक  कहानी आत्म-संघर्ष की जीवन और मौत के बीच। लेखिका ने सारे दृश्यों को इतने जीवंत तरीके से लिखा है कि सारा घटनाक्रम आप अपने इर्द-गिर्द अनुभव कर सकते है। प्रकाशक ने भी रंगीन फोटोग्राफ प्रस्तुत कर इस पुस्तिका में चार चांद लगाकर दर्शनीय बना दिया है। हिन्दी पाठकों से आग्रह है कि न केवल वे स्वयं इस पुस्तक को पढ़े वरन अपने बच्चों को पढ़ने के लिए अवश्य प्रेरित करें। 


2. किस हाल में मिलोगे दोस्त
 
    डॉ. विमला भंडारी की भारत सरकार के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) द्वारा प्रकाशित सन 2014 की पुस्तक का पहला संस्करण (आईएसबीएन 978-81-237-7121-2) है किस हाल में मिलोगे दोस्त। लेखिका की गहरी अंतर्दृष्टि अतीत व यथार्थ को झांकने के लिए मजबूर करती है। बचपन में प्रारंभिक कक्षाओं में एक कविता पढ़ाई जाती पी, जिसका मूलभाव था, बारिश की एक बूंद हवा के झोंके से अपना रास्ता भटक कर सीपी के मुंह जा गिरती है तो वह मोती बन जाती है, इस प्रकार दूसरी बूंद बेले के पत्ते पर जाकर लटक जाती है और वह कपूर बन जाती है जबकि तीसरी बूंद किसी विषधर नाग के मुंह में जाकर गिर जाती है और वह विष बन जाती है। इसी तरह कागज के पल्प में कुछ रसायन मिल जाने से एक कागज मटमैला व खुरदरा बन जाता है जबकि दूसरा कागज सफेद चिकना बन जाता है। लेखिका ने इस कहानी में एक जगह यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि समाज में गुणों की कद्र होती है। सफेद चिकना कागज किताबों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जबकि खुरदरा व मटमैला कागज अखबार बनाने के काम में लिया जाता है। दूसरे शब्दों में कोयल की आवाज मधुर होने के कारण सदियों से वह सम्मानित होती आई है, जबकि कौआ अपनी कर्कश आवाज के कारण उपेक्षित होता है। वैसे ही अखबार का वह कागज किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम आता है और उसमें भी आकर्षक नहीं दिखने पर सड़क पर फेंक दिया जाता है और उसकी जगह खाकी कागज जिल्दबंदी में प्रयुक्त किया जाता है। लेखिका की इसी अवधारणा को प्रबंधन गुरु शिव खेड़ा अपनी पुस्तक आपकी जीतमें दो गुब्बारों का उदाहरण देते हुए बच्चों को समझाने का प्रयास करते हैं कि जिस गुब्बारे में हीलियम या हाईड्रोजन गैस भरी होती है, वह गुब्बारा आकाश की ऊंचाइयों में उड़ते जाता है, जबकि जिस गुब्बारे में मुंह से हवा फूंकी जाती है वह उन ऊंचाइयों को तय नहीं कर पाता बल्कि वह ऊपर उड़ नहीं पाता है।कहने का तात्पर्य यह है, गुब्बारों के भीतर की गैस उसके उड़ने की गुणवत्ता का निर्धारक है। ठीक, इसी प्रकार कागजों के अंतर्निहित रसायनिक तत्त्व उसकी स्निग्धता, खुरदरापन अथवा रंगों को निर्धारित करता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका के साथ-साथ एक अनछुए तथ्यों को उजागर करने की भी कोशिश की है। वह है मैत्री-भाव। दुनिया की हर वस्तु का अपना एक अलग महत्त्व होता है, अलग उपयोग होता है। सुई की जगह सुई ही काम आ सकती है न कि तलवार। अतः सुई की अवहेलना नहीं की जा सकती है। वरन सुई और तलवार का मैत्री-भाव हमेशा बने रहना चाहिए। लेखिका ने बाल-मन के सुकोमल हृदयों में दोस्ती की भावना को प्रज्ज्वलित करते हुए दोनों कागजों के रोल के आत्मीय संबंध से अपनी कहानी शुरू की। दोनों कागजों के रोल गोदाम में थे, एक दूसरे से घनिष्ठता पूर्वक सटे हुए। फिर प्रेस का एक मालिक उन्हें खरीद कर ले जाता है। सफेद स्निग्ध कागज से अखबार बनाने का आदेश देता है। यही से दोनों बिछुड़ जाते है। सोनू अपनी किताब पर जब अखबार की जिल्द चढ़ाता है तो फिर से दोनों दोस्तों का मिलन। मगर जब सोनू की क्लास टीचर उस असुन्दर कवर को देखकर उसकी जगह खाकी कवर लगाने की सलाह देती है तो फिर से दोनों का बिछोह। जब अखबार के फेंके हुए कवर को सोनू की मां रद्दी वाले को बेच देती है और वह रद्दी वाला उसका ठोंगा बनाता है। उस ठोंगे में चने डालकर चने बेचने वाला स्कूल के बाहर चने बेचता है, जिसे सोनू खरीदकर उसकी पुड़िया बनाकर अपने बस्ते में डाल देता है। फिर से दोनों दोस्तों का एक बार पुनर्मिलन। किताब का कागज उसका हाल देखकर दुखी हो जाता है। चने खाकर ठोंगे के कागज का हवाई जहाज बनाकर सोनू उसे उड़ा देता है। वह स्कूल की दीवार से टकरा कर नीचे जमीन पर गिर जाता है। चोट लगने की वजह से वह फट जाता है ,और तो और मैदान में खेलने वाले बच्चे उसे कुचलते हुए आगे बढ़ जाते है। इधर वह दर्द से कराह रहा होता है और उधर सोनू स्कूल से छुट्टी होने पर घर जाते समय वहां फिसल कर गिर पड़ता है। उस कागज के ऊपर किताबें बिखर जाती है, उस कागज के ऊपर। फिर से दोनों कागजों का मिलन। यहां पर आकर लेखिका ने दोनों दोस्तों के बीच होने वाले वार्तालाप के माध्यम से कहानी में खास मोड़ लिया है। जब मटमैला कागज कहता है, ‘‘तुम्हारी इज्जत का कारण तुम्हारे गुण है।’’ जबकि किताब का कागज उत्तर देता है, ‘‘दुनिया में हर चीज का अपना महत्त्व है। जो काम आप कर सकते हो, वह मैं नहीं कर सकता।’’ तभी सोनू किताब उठाकर अपने बस्ते में डालकर चला जाता है। फिर से दोनों में बिछोह!
लेखिका का दार्शनिक स्तर से सोचने का ढंग इतना उच्चकोटि का है कि वह हर अवस्था में जीवन के सत्य, यथार्थ और संबंधों को व्यापक दृष्टि से देखती है और उनके सूक्ष्म पहलुओं पर दृष्टिपात करने के लिए अंतश्चक्षुओं से बनी सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) का प्रयोग करती है। जो चीज हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में देखते हैं मगर उस तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता है। मगर लेखिका की तीव्र दृष्टि से  साधारण चीजें भी अछूती नहीं रह पाती है और उसे अपने विचारों का उन्नत जामा पहनाकर साहित्यिक रूप में प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है। जीवन में मिलना-जुलना और बिछुड़ना लगा रहता है, मगर किस तरह उन कागजी दोस्तों की तरह? जीवन की शृंखलाओं में कितना उतार-चढ़ाव है? कहां गुण, कहां अवगुण। कब सौभाग्य, कब दुर्भाग्य। सब कुछ संभव है। तभी तो लेखिका ने इसका शीर्षक दिया है, ‘‘किस हाल में मिलोगे दोस्त।’’    
   
3. ईल्ली और नानी
 
 ‘‘ईल्ली और नानी’’ डॉ. विमला भंडारी का लिखा एक ऐसा बाल-उपन्यास है जो अपने समय में बहुत ज्यादा चर्चित रहा। न केवल बाल-पाठकों में वैज्ञानिक शब्दावली को समझने वरन उनमें नैसर्गिक प्रकृति को नजदीक से समझने एवं उत्सुकतापूर्वक मक्खी, चींटी, मच्छर, कीड़े, मकोड़े, टिड्डे, दीमक व तितली के जीवन संबंधित वैज्ञानिक तथ्यों को सरस, सरल व मनमोहक तरीके से आत्मसात करने का अनूठा प्रयोग है। हमारे देश में वैज्ञानिक पृष्ठभूमि वाले साहित्य बच्चों के लिए बहुत कम लिखा जाता है, जबकि विदेशों में नीमोजैसे जलीय जीवों पर कंप्यूटरीकृत फिल्में बनी है। पैसों, तकनीकी व दर्शकों की जागरूकता के अभाव में हमारे देश बच्चों के ऐसी ज्ञान-जन्य फिल्में बहुधा कम बनती है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में लेखिका का यह उपन्यास हिन्दी बाल-जगत में अपना एक स्थान रखता है। इसके अतिरिक्त, सही-सही सटीक शब्दों में वैज्ञानिक तथ्यों को पिरोकर जिन सरल वाक्य संरचना के साथ लेखिका ने प्रस्तुत किया, वह न केवल उनके विज्ञान पृष्ठभूमि को दर्शाती है, वरन विज्ञान आधारित विषयों में अतिरेक अभिरुचि के साथ-साथ जिज्ञासा पूर्वक उन्हें समझने और समझाने को कठिन श्रमसाध्य कर्म को विशिष्ट बाल-पाठकों के लिए अनुपम व उपयोगी बनाती है। इस उपन्यास की शुरूआत पुस्तकों की दुकान वाले दयाल बाबू के पास पांचवीं कक्षा तक पढ़े नौकर केशू के सपनों में एक के बाद एक मक्खी, मच्छर, टिड्डा, दीमक, चींटी, मकड़ी व तितली आदि के जीवन-प्रसंगों से संबंधित दृश्य से होती हैं।  किसी शिक्षाविद् का यह कथन कि प्रारंभिक शिक्षा में जो चीजें पढ़ाई जाती है, उनकी स्मृति जीवन पर्यंत रहती हैं, यह उदाहरण ईल्ली और नानीके साथ भी लागू होता है। यहीं ही नहीं, अगर किसी बाल-उपन्यास में रोचकता पचहत्तर प्रतिशत हो तो, वह उपन्यास उस भाग के बाल-जगत का उज्ज्वल नक्षत्र बन जाता है। विमला भंडारी का यह उपन्यास अत्यन्त ही रोचक व शिक्षाप्रद है। जिसे कोई भी पाठक चाहे बड़ा हो या छोटा अगर एक बार पढ़ लेता है तो भाषा की शैली, सातत्य व संप्रेषणशीलता की वजह से वह हमेशा-हमेशा के लिए उनके स्मृति-कोशों में अमरता को प्राप्त कर लेता है।
एक इल्ली नामक नन्ही मक्खी पेचिश, तपेदिक, कुष्ठ और टायफाइड कीटाणुओं का ट्रक भर-भरकर व्यापार करती है। बरसात के दिनों में तो कहना ही क्या। ईल्ली की मां की व्यस्तता के कारण उसकी नानी का तार आने पर वह स्वयं कीटाणुओं से लदे ट्रक लेकर नानी को मिलने सौरपुर शहर चली जाती है। नानी उसे सौरपुर शहर की सारी जगहों जहां कीटाणुओं का व्यापार किया जा सकता है, दिखाने लगती है। उनमें मिठाई की दुकानें, रेलवे-प्लेटफार्म, बस-स्टेण्ड, अस्पताल, बिखरे मलबे का ढ़ेर, बदबूदार शौचालय, शहर के किनारे बसी कच्ची बस्ती तथा वहां के सारे पर्यटन स्थल शामिल है। इन जगहों पर बीमारियों के कीटाणुओं का आदान-प्रदान सहज है। जब नानी ईल्ली को एनाफिलीज मादा मच्छर से मुलाकात करवाती है तो उसकी जिज्ञासा बढ़ जाती है। जब लेखिका उसमें यह तथ्य जोड़ देती है कि मलेरिया पैरासाइटजैसा कीटाणु ऐनाफिलीज के पेट में अपना आधा जीवन पूरा करता है और शेष आधा जीवन मनुष्य की त्वचा को भेदकर उनका खून चूसते हुए अपनी लार द्वारा उनमें प्रवेश कराती है। ऐनाफिलीज के बारे में यह जानकारी न केवल बाल पाठकों में वैज्ञानिक जिज्ञासा को जन्म देती है, वरन मलेरिया होने की प्रक्रिया में जादू-टोने जैसे अंधविश्वास के स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बारे में अपनी बात रखने में खरी उतरती है। उसके साथ ही साथ टी.वी. विज्ञापनों से मलेरिया मच्छरों से निदान पाने वाले कारगर उपायों की नई-नई जानकारियां बाल-जगत के समक्ष प्रस्तुत करती है।आगे जब वह लिखती है कि एक संक्रमित एनाफिलीज मच्छर स्वस्थ आदमी को अगर काट लेती है, जिसे आगे फैलाने का कार्य करती है। यह सिलसिला जारी रहता है। यहीं ही नहीं, ‘क्यूलेक्सएवं एडीसजैसे मच्छर डेंगू ज्वर और फील पांव तथा पीत ज्वर को जन्म देते है। भले ही, बच्चों के लिए विज्ञान जैसा जटिल विषय हो, मगर लेखिका कहने का रोचक ढंग उपन्यास को पठनीय बनाता है। सच में बाल-साहित्य के लिए यह आवश्यक शर्त है। 
एनाफिलीज के जीवन चक्र, दो सौ से चारा सौ तक अंडे देना और अंडो से लार्वा, लार्वा से प्यूपा बनना आदि सूक्ष्म जानकारियों को लेखिका ने जिज्ञासु ईल्ली के डायरी-लेखन की प्रवृत्ति से बच्चों में नई-नई चीजों को सीखकर अपनी डायरी में लिखने जैसे गुणों को अपनाने की प्रेरणा देती है।
मक्खियां अपने अंडे घोड़े की लीद, मुर्गियों की बीट, मनुष्य का मल, सड़े-गले फल और सब्जियां, गौशाला जैसी जगहों पर गर्मी या बसंत ऋतु में पांच सौ से लेकर छः सौ अंडे एक ही बार में देती है। जब नानी अंडे देने लगती है, तो मेंढक लसलसी जीभ से लपलपाते हुए खाने के लिए आगे बढ़ती है।इस तरह की जानकारियां देते हुए लेखिका दूसरे जीव-जंतुओं से बाल जगत का परिचय करवाती है। एनाफिलीज से परिचय करवाने के बाद लेखिका का लक्ष्य होता खिताटिड्डा जो कि अफ्रीका के प्रवासी यूथी टिड्डी दल का नायक होता है। और वह रानी मक्खी अर्थात नानी का उसके इलाके के हरे-भरे खेतों का पर्णहरित खाने के लिए धावा बोलने के बारे में सूचित करता है। मगर ईल्ली के निवेदन पर वह कुछ दिनों के लिए अपने आक्रमण की योजना को स्थगित कर देता है। इसी दौरान ईल्ली की किसी वाहन से टकराकर दुर्घटना हो जाती है जिसे खितादेख लेता है और वह उसे बचाकर अपने घर ले आता है। ऐसे ही रोचक ढंग से शुरू होती है, टिड्डे के जीवन की कहानी और ईल्ली के प्रति संवेदनशीलता पंखों के भिनभिनाने से से उसकी सुरीली आवाज और खिता का मधुर गान
कल होगी एक सुन्दर सुबह
ताजी बहेंगी हवाएं
उड़न झूलों पर हवा बैठकर आएगी
एक सलोनी मक्खी को
अपने संग उड़ा ले जाएगी
उसकी पोशाक का
लाल पीला रंग
दूर आसमान में 
पतंग बन
लहर लहर लहरायेगा
ईल्ली के दर्द को जहां कम करता है, वहीं पाठकों को प्रकृति की उस मनोरम दुनिया की ओर खींच ले जाता है, जिसकी सुषमा, संगीत तथा अनेकानेक रहस्य परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं। जो न केवल बालकों की कल्पना-शक्ति को बढ़ाती है, वरन उनके अभिव्यक्ति की शैली में नए-नए भावों व शब्दों को पिरोती हुई अंतर्जगत् की नई दुनिया का निर्माण करती है।
किसी भी पाठक के लिए यह कल्पनातीत सत्य होगा कि एक वर्ग किलोमीटर में लगभग पांच करोड़ टिड्डियां होती है और एक दिन में करीबन 100 टन वनस्पति का भक्षण करती है। वे पन्द्रह से सत्तरह घंटे बिना रुके लगातार उड़ सकते है। एक हजार किलोमीटर से लेकर पन्द्रह हजार किलोमीटर की दूरी तय करना उनके लिए कोई दुष्कर कार्य नहीं है। यह तो हुई टिड्डों के बारे में वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी। मगर जब लेखिका लिखती है कि जब टिड्डों का दल एक साथ उड़ता है तो सूरज भी छिप जाता है या एक बार लाल सागर पार करते समय उनका दल पांच हजार वर्ग किलोमीटर तक फैल गया, तब लेखिका का लक्ष्य बाल-मन को कल्पना के उस महासागर में उड़ाना है जहां वह स्वयं को टिड्डा बनाकर उस अनुभूति को अनुभव कर सके।
डाॅ. विमला भंडारी के लेखन सौन्दर्य के साथ-साथ दूसरी विशेषता है शब्दों का माधुर्य। जैसे टिड्डी एक बार में अस्सी से लेकर 150 अण्डे देती है। जिनसे लगभग 15 दिन बाद बच्चे निकल आते है जिन्हें हम फुदककहते है। फुदकशब्द के माधुर्य व सरलता का क्या कहना! अपने आप पाठक इस चीज को पकड़ लेते है कि तीन सप्ताह के बाद ही टिड्डों के बच्चों को उड़ना आता है तब तक वे केवल फुदकते रहते है इसलिए प्यार से लेखिका ने उनका नाम फुदकरखा है। इसके अतिरिक्त ईल्ली के संस्मरण या डायरी-लेखन की आदत निष्कपट पाठकों को अत्यंत प्रभावित करती है। बीच-बीच में कहीं नन्हे पाठक बोर न हो जाए, सोचकर लेखिका अंडों की चोरीजैसे प्रसंग भी जोड़ देती है। इसी तरह ईल्ली की मुलाकात चींटेराम से हो जाती है और उसे कैसे पता चलता है कि उसके अंडे दीमक चुरा कर ले गए है? दीमकों के महल और चींटियों के बिल के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए इस क्रम के सातत्य को बनाए रखने के लिए डाॅ. विमला भंडारी के तेज दिमाग ने बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति पर आनन-फानन में आधिपत्य जमा लिया और देखते-देखते उनके मन-मस्तिष्क की शिरा-धमनियों में बहते हुए आगे की यात्रा का वृतांत दूसरे भाग में जारी रखा। 
दीमक का किले का रास्ता। तुंड सैनिक पहरेदार। न खत्म होने वाली सुरंग। राजा-रानी के विशाल किले के चारों तरफ दीमकों की विशाल सेना की घेराबंदी। किले के चारों तरफ सुंदर बगीचे। उन बगीचों में काम करते श्रमिक दीमक।
इस प्रकार का लेखिका का वर्णन इतना सजीव है मानो सही मायने में किसी राजा-महाराजा की धरोहर की स्थापत्य व वास्तुकला आंखों के सामने उभरने लगी हो।
अंदर कई कक्ष। बीचो बीच एक बड़ा कक्ष। दरवाजों और खिड़कियों पर रेशमी पर्दे। कक्ष के बाहर लिखा था राॅयल चेंबर। लिखते-लिखते लेखिका मानों लेखन-कार्य में पूरी तरह डूब चुकी हो। वह स्वयं ईल्ली बनकर दीमक की बांबी का परिदर्शन कर रही हो। साथ ही साथ दीमक के राजा द्वारा उसे बंदी बनाना यह कहकर कि तुम्हारा उद्देश्य हमारे यहां कीटाणु फैलाकर हमें खत्म करना है। उनमें गुप्तचर तंत्र होने की पुष्टि करता है। मनुष्य की तरह ही उनमें भी श्रम-विभाजन, अनुशासित ढंग से रहने के तौर-तरीके, जीवन-शैली सब-कुछ दर्शाया है लेखिका ने। किस तरह दीमकों के तुंड सैनिक अपनी काॅलोनी की रक्षा करने के साथ-साथ अपने तुंडक से चिपचिपा रस निकालकर लकड़ी, कागज-गत्ता जैसी चीजों को घोलने का काम करते है। किस तरह साधारण दीमक रास्ते में गंधयुक्त पदार्थ छोड़ते जाते है, जो उन्हें अपने कक्षों या घोंसलों में लौटने के लिए मार्ग रेखा का कार्य करता है। उन्हें सूंघ-सूंघ कर अपने मूल स्थान पर वापस पहुंच जाते है। ठीक इसी तरह, श्रमिक दीमक अपने श्रम कार्यों में व्यस्त रहते हैं। बहुत कुछ चीजें सीखी अथवा सिखायी जा सकती है, इस तरह बाल-साहित्य से। साथ ही साथ, विदेशों की तरह यहां भी बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बचपन से ही विकसित किया जा सकता है। ईल्ली अगले क्रम में चींटे को अपने घर पर चाशनी से तर-बतर मजेदार जलेबी, रसगुल्ले, गुलाब-जामुन और मावे की बरफी की दावत पर बुलाती है। तो बातों-बातों में चींटाराम अपनी आप बीती घटना, कल्लू हलवाई की दुकान के नीचे गिरे रसगुल्ले को उनकी टोली के गुप्तचर द्वारा उसकी मां को खबर करने पर किसी उनकी प्रजाति की सारी चींटियां बिलों से बाहर कतारबद्ध होकर निकलती है, सुनाता है। उनकी भेड़चाल पर नानी मक्खी व्यंग्यात्मक दृष्टि से हंसने लगती है तो चींटाराम वहां से उठकर चल देता है अपने बिल की तरफ। पीछे-पीछे इल्ली। सारा दृश्य फिर एक बार ऐसा प्रस्तुत होता है, जैसा मैंने कभी अपनी सातवीं-आठवीं कक्षा में ‘‘पिपीलिका’’ नामक अध्याय में पढ़ा था अथवा गोपी मोहंती की ओडिया कहानी पिंपुड़ी’ (चींटी) का अनुवाद करते समय अनुभव किया था कि किस तरह निर्धन आदिवासी लोग चींटियों की तरह अपने कंधों पर चावल के बोरे लादे ओडिशा के कोरापुट की पहाड़ी इलाकों से आंध्रप्रदेश के समतल मैदानों में तरक्की करने में लगे हुए थे।
ईल्ली को चींटेराम के पीछे-पीछे जाने के बहाने जमीन के नीचे बिछे चींटियों के नगर अर्थात भूमिगत बिल के घुसने का अवसर प्राप्त हो जाता है। जंगल से खुलता बिल का मुख्य मार्ग, किसी भी प्रकार की विपदा से बचने के लिए बिल के द्वार पर कोई द्वारपाल नहीं। झींगुर, मकड़ी जैसे कामचोर कीड़ों द्वारा उनके भोजन पर आक्रमण। चींटियों के दल में वंशागत पारस्परिक युद्ध। मेहनती कृषक चींटियों के खेत। उनका अनुशासन और व्यवस्थित जीवन। मनुष्यों की तरह मजदूर चींटी, इंजीनियर चींटी, बाॅडीगार्ड चींटी सब-कुछ। चींटियों की पालतू गायें-भुनगा कीड़ो की और अचानक उनके बिलों में बाहर तेज बारिश होने के कारण पानी भर जाना। बहुत कुछ देखा और अनुभव किया ईल्ली ने। मगर अपने डूबते छटपटाते चींटेराम को बचाकर वह किसी अन्य सुरक्षित जगह पर ले जाती है तभी उसकी नजर पड़ती है एक मकड़ी पर जो चींटेराम के इर्द-गिर्द जाला बुनकर उसे अपने गिरफ्त में लेना चाहती है। ईल्ली के अचानक चिल्लाने पर वह बचने का प्रयास करता है, मगर तब तक उसकी एक टांग जाले में बुरी तरह उलझ चुकी होती हैं बलि के बकरी की तरह वह विवश असहाय खड़ा नजर आता है। दुष्ट मकड़ी से अनुनय-विनय करने के बाद भी जब वह उसे नहीं छोड़ती है तो उसे अपने टिड्डे मित्र की याद हो आती है। वह आकर उसे बचाता है, तब तक चींटेराम की एक टांग टूट चुकी होती है। जब खिता उसकी टांग तोड़ना चाहता है तो चींटा उसे कहने लगता है मकड़ी अष्टपदा है। कोई भी टांग टूटने से फिर निकल आती है। यहीं ही नहीं, उसकी आठ आंखें भी होती है। सारा दिन जाला बुनकर शिकार फंसाती है और खाकर आराम से सुस्ताती है। वह अपने जाले में खुद नहीं फंसती है क्योंकि उसके पैरों में एक प्रकार का तेल पैदा होता रहता है, जो उसे जाले के चिपचिपे धागे में फंसने नहीं देता। यही ही नहीं, मकड़ी का जाला उसके मुंह की लार है, जो हवा के संपर्क में आते ही सूखकर मजबूत हो जाता है। इस तरह लेखिका ने उपन्यास में जगह-जगह पर वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारियों को अत्यंत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
अंत में ईल्ली का परिचय रंग-बिरंगी तितलियों, भौरों व मधुमक्खियों से प्रकृति का सुन्दरतम जीव और उतनी ही सुंदर उनकी जीवन और कार्यशैली से होता है। फूलों से पराग इकट्ठा करती तितलियां भौंरों का गुंजन और शहद का छत्ता बनाती मधुमक्खियां का फूलों पर मंडराना अंधेरे में जुगनूओं का चमकना बहुत कुछ प्रभावित करता है इल्ली। यहां उसे इस बात का अहसास होता है कि कीटाणुओं का व्यापार करना एक अपराध-कर्म है, जो मानवता को खतरे में डालकर रोगाक्रांत कर देती है, जबकि दूसरे जीव अमृत तुल्य शहद बनाकर उन्हें नया जीवन व स्वास्थ्य प्रदान करते है।। प्रकृति का यह रहस्य जब उसके समक्ष प्रकट होता है तो वह अपराध कर्म नहीं करने का संकल्प लेती है। जिसके साक्षी बनते है, निर्भय प्रेम और उल्लास से नाचते बादल, उनकी ओट से निकलता चंद्रमा तथा टिमटिमाते सितारे। सारी प्रकृति झूम उठती है। 
जैसे ही केशू की यह किताब पढ़कर सोना चाहता है, उसकी एकाग्रचित्त लगन देखकर दयाल बाबू की पत्नी प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहती है ‘‘बेटा, कल से तुम स्कूल जाओगे।’’
 
 









Comments

Popular posts from this blog

स्वप्नदर्शी बाल-साहित्यकार सम्मेलन

बातें-मुलाकातें

शोध पत्र