कमरे से दिल्ली की यात्रा/ डॉ. विमला भंडारी

अध्याय :- ग्यारह
कमरे से दिल्ली  की यात्रा/ डॉ. विमला भंडारी
 
       मैंने अपनी कल्पना को शब्दों में कब से बांधना शुरू किया? या सीधे-सीधे कोई मुझसे ये पूछे कि मैंने लिखना कब से शुरू किया तो अतीत के ब्लैक-होल में जब वक्त को अणुओं में बिखेरती हूं तो आठवीं कक्षा कि सोंधी महक से नथुने भर जाते है।  यह वह समय था जब शरीर कुसुमित होने और मन अनंत में कुलाचें भरने की तैयारी कर रहा था। सत्तर के दशक की बात रही होगी और मेरी उम्र मात्र तेरह बरस की- तो आइये, आपको अपने साथ ले चलती हूं स्कूल के दिनों से जयसमंद कैम्प की ओर।  राजस्थान का कश्मीर उदयपुर शहर और वहां का प्रख्यात विद्यालय ‘‘राजस्थान महिला विद्यालय....आर.एम.वी.’’  जिसका कक्षा 6 से लेकर 11 वीं तक की छात्राओं का 12 दिन का शिविर जयसमंद झील पर बने फॉरेस्ट गेस्ट हाऊस में लगा था। जहां की हरीतिमा युक्त पहाड़ियों, पानी से लबरेज झील, इतिहास को रेखांकित करते संगमरमरी महल, जनभावनाओं का प्रतीक शिव मंदिर कुल मिलाकर नैसर्गिक, आलौकिक वातावरण के बीच सुबह की सैर, दिन की कार्यशालाएं, शाम की भजन संध्या, भोजन और तदुपरान्त सबसे रोचक होता था सांस्कृतिक प्रस्तुतियां लिए कैम्प फायर   लगभग 250-300 छात्राओं का बड़ा समूह नित्य आठ बजते ही गोल घेरा बनाकर कैम्प फायर के साथ होने वाली विभिन्न प्रस्तुतियों का आनंद लेता। कैम्प फायर का मुख्य आकर्षण था गड़बड़ रेडियोजो मेरे द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। लड़कियां बड़ी बेसब्री से इस प्रस्तुति का इंतजार करती थी। काली शाल ओढ़े, टार्च की रोशनी जला रेडियो का आभासी लुकदेते हुए मैं अपनी लिखी हुई हास्यजनक मनोरंजक स्क्रिप्ट प्रस्तुत करती।  गड़बड़ रेडियो की शुरूआत मुझे जहां तक याद है कुछ इस तरह होती- ‘‘यह रेडियो गप्पीस्तान है। पौने नौ बजकर गप्पतालीस मिनिट हुए है। अब आप गप्पीचन्द से आज के गड़बड़ समाचार सुनिये।  आज दिन में एक मजेदार घटना घटी। पींटूजी सर एकाएक फूलकर कुप्पा हो गये। कुप्पा क्या हुए इतना फूले कि गोया गुब्बारा हो गये। गुब्बारा बन लगे आसमान में उड़ने। पींटू सर को उड़ता देख सज्जाद सर ने सिर ऊपर उठाया। इस तरह कि उनकी गर्दन जिराफ की तरह लम्बी हो गई। गर्दन ही क्यूं उनके पैरों कि लम्बाई भी लगातार बढ़ रही थी। वे झपट्टा मार एक ही बार में पींटूजी सर को पकड़ना चाहते थे। वे लपक ही लेते कि इस बीच जामुन का पेड़ आ गया और सज्जादजी सर पींटू सर को भूलकर जामुन खाने में मशगूल हो गये। पींटू सर लगातार हवा में उड़ते हुए सहायता के लिए चिल्ला रहे थे- हेल्प मी...हेल्प मी....यह देख कैम्प में आ सब लड़कियां हंसने लगी। इधर लड़कियां हंसी उधर प्रिंसिपल ने यह कहकर फाईन लगा दिया कि कैम्प में हंसना मना है। घर जाने तक कोई भी लड़की नहीं हंसेगी। उदास लड़कियां गाने लगी- ‘‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा........’’           कुछ इस तरह से शुरू हुई थी मेरे लेखन और उसकी अभिव्यक्ति की भित्ति-पत्रिका स्कूल के पोर्च में सप्ताह में एक बार लगाई जाती। मैं उसमें कुछ ना लिखूं ऐसा हो ही नहीं सकता। जबकि मन से लिखना अर्थात स्वरचित रचना अनिवार्य शर्त थी। कल्पना के घोड़े दौड़ाती और तब कोई कृति जन्म लेती। शुरू से ही मैंने गद्य लेखन किया। खासतौर से तो मैं कहानियों की दीवानी रही। मेरी पहली कहानी ठंड से ठिठुरती एक गरीब लड़की पर थी। जो मैंने अपनी कक्षा की सुषमा पर ही बनाई थी। जिसके सौतेली मां थी। उसके लिए कक्षा की सब लड़कियां पैसे जमा कर स्वेटर खरीद कर देती है। गरीब लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट छा जाती है। पूरी कक्षा को एक संदेश देती यह कहानी मूर्त रूप लेती है, मुझे खूब शाबाशी मिलती है। लेखन की ताकत से मेरा पहला साक्षात।  सप्ताह में एक पीरियड लाइब्रेरी का आता जिसका मुझे बेसब्री से इंतजार रहता। वहां टेबल पर ढेरों पत्र-पत्रिकाएं पड़ी रहती। हमारी कक्षा लाइन बनाकर ऊपर लाइब्रेरी कक्ष में जाती पर दरवाजे तक पहुंचते ही सारी लाइन गड़बड़ा जाती। लड़कियां दौड़कर चंदामामा, नंदन, पराग पर झपट्टा मारती। कई बार मनपसंद पत्रिका नहीं मिलने से दो लड़कियां मिलकर शेयर कर पत्रिका पढ़ती। चंदामामा के विक्रम और वेतालकी कहानी मेरी पहली पसंद होती। तेनालीराम का बुद्धिचातुर्य लुभाता, अकबर बीरबल के किस्से तो थे ही पसंद के लायक।  भाटिया बहनजी की मैं चेहती थी। कारण मेरा वादविवाद और भाषण कला में अव्वल आना। वहीं इस विधा को लेती थी।   उन दिनों मुझे पता नहीं था कि ये कला मेरे बाद के जीवन में भी काम आने वाली है। सम-सामयिक विषयों पर अपने भाषण खुद लिखती। उन दिनों सुबह की शुरूआत ही बी.बी.सी. लंदन सुनने से होती थी। पापा सुनते थे और साथ में देश विदेश में होने वाली गतिविधियों पर विमर्श भी करते थे। कई बातें जो भाषण या वादविवाद में मुझे चाहिये थी, पापा मुझे लिख दे पर नहीं वे नहीं लिखते। बस, बता भर देते थे की थीम क्या होनी चाहिये। खुद डवलप करो। सीधा हलवा.... ना बाबा ना। खुद मजो, उनकी इस आदत ने ही आज के सफर को तय करने का अंदाज सिखाया। अपने प्रयोग मैं खुद करना सीख गई। सफलता के साथ खुद पर भरोसा बढ़ता गया। चित्रकला की तो मैं दीवानी थी। इस हद तक कि एक बार तो..... सच बताऊं किसी की रंग की डिब्बी छूट गई थी। मैंने खोलकर देखी। अंदर नई नवेली ट्यूब कलर दमक रहे थे। मेरी नजर बोटल ग्रीन पर ठहर गई। बोटल ग्रीन कलर की टुयूब उठाते मेरे हाथ कांपे। अंदर से आवाज आई ये ठीक नहीं। पर मैंने टयूब फटाफट अपनी डिब्बी में रख ली। कोई देख नहीं रहा था। मन आश्वस्त हुआ पर थोड़ा क्षुब्ध भी। मुझे अपनी डिब्बी में गोल्डन यलो कलर पसंद नहीं था। मैंने उसे उठाया और बोटल ग्रीन से रिक्त हुई खाली जगह पर रख दिया। मैंने अपनी पसंद के रंग से उसे बदल लिया था। मैंने चोरी नहीं की। बाद में पता चला कि यह डिब्बी सवितेन्द्र की थी। उसने मेरे वाले गोल्डन यलो और नीले रंग को मिलाकर बोटल ग्रीन कलर बना लिया था। मैं हैरान थी कि मैंने ऐसा क्यों नहीं किया। क्यों रंग उठाया और बदला? इस प्रश्न ने मुझे बहुत लताड़ा। भविष्य अतीत के कंधों पर ही तो टिका है। क्या आपको ऐसा नहीं प्रतीत होता? सबसे छोटी और तीसरी बेटी के जन्म अर्थात 1980 के बाद नवोदित लेखिका के रूप में मेरा पुनर्जन्म हुआ। एक प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दुस्तान टाइम्स में मेरी पहली पाठकीय प्रतिक्रिया छपी। अपार हर्ष और फिर अनवरत पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। ऐसा दिन भी रहा जब एक दिन में मैंने 13-14 डाक पोस्ट की। 90 के बाद पहली बार मेरा साक्षात्कार राजस्थान साहित्य अकादमी से हुआ। उन दिनों राजस्थान साहित्य अकादमी बाल-साहित्य के क्षेत्र में पाण्डुलिपि पर पुरस्कार देती थी। प्रेरणादायक बाल कहानियांकी पाण्डुलिपि पर 1995 राजस्थान अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार मिला। यह वह समय था जब मैं लेखन में डूबती गई थी। परिवेश के प्रति सजगता, व्यक्तिगत अनुभूति, चिन्तन, अभिव्यक्ति कलम से जुड़कर सृजन में ढलने लगी। यह 94-95 का समय रहा जब पहली बार घर की दहलीज लांघ मेरा परिचय विस्तृत समाज से हुआ। घर परिवार का दायरा छोड़ विस्तृत समाज से जुड़ने का यह अवसर मुहैया कराया राजनीति में महिला आरक्षण ने। कांग्रेस पार्टी का प्रत्याक्षी बन नगर पालिका चुनाव लड़ने का प्रस्ताव मेरे पास आया पर मैंने इंकार कर दिया। राजनीति की ओर मेरा रूझान नहीं था पर होनी को कुछ ओर ही मंजूर था। यह मैं इसलिए कह रही हूं कि अब तक मैंने चार चुनाव लड़े और तीन बार जन-प्रतिनिधि बनकर सक्रिय राजनीति में हिस्सेदारी की। वर्तमान में भी पंचायती-राज में निर्वाचित जन-प्रतिनिधि हूं और 12 पंचायतों के प्रति मेरी जवाबदेही है।  राजनीति और साहित्य में मैंने एक साथ कदम बढ़ाया। जिन दिनों मैं सलूम्बर इतिहास लेखन हेतु डॉ॰ देव कोठारी, निदेशक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ के निर्देशन में सामग्री जुटा रही थी। मेरे नाना नाथूलाल दरक व मेरे पति जगदीश भंडारी इसमें सहयोग कर रहे थे। मेरे पति मुझे राजस्थान विद्यापीठ के कुलपति एवं संस्थापक जर्नादनराय नागर से मिलने ले गये। मेरी उनसे यह पहली और अंतिम मुलाकात थी। वयोवृद्ध जीनूभाई (प्यार से लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते थे और मेरे बड़े श्वसुर चैनसिंह भंडारी से उनकी घनिष्ठता थी) झूले में बैठे झूले का आनंद ले रहे थे। हमारी भी कुर्सियां वहीं लग गई। करीबन दो ढ़ाई घंटे बातचीत चली। गये तो हम सलूम्बर का इतिहास प्रकाशन के संदर्भ में बात करने,परन्तु बात राजनैतिक गलियारों की चर्चा पर केन्द्रित हो गई। पारिवारिक पृष्ठभूमि आजादीकालीन समाज उत्थान एवं कांग्रेसी विचारधारा की होने से चर्चा मेरे चुनाव न लड़ने पर केन्द्रित हो गई। मेरे राजनीति गन्दी है कहकर नकारने पर वह कहने लगे- ‘‘अगर अच्छे लोग राजनीति में नहीं आयेंगे तो हम सभी को गन्दी राजनीति का शिकार होना अवश्यसंभावी व अपरिहार्य है।’’ मुझे याद है वो पल जब जीनूभाई ने मुझे कहा था- ‘‘विमला आगे बढ़ो, गरीब असहाय लोगों से जड़ों और उनकी वाणी बनो... उनकी शक्ति बनो। जहां गलत हो रहा हो उसका विरोध करो। गन्दगी में लिप्त रहने वाले तो उसके खिलाफ नहीं होंगे.... इसे साफ सुथरा बनाने के लिए अच्छे लोगों का आना जरूरी है.......’’वह कह रहे थे और मैं चुपचाप सुन रही थी। मन ही मन अपने आपको तोल रही थी। मेरे पिता भी यही चाहते थे मुझसे। विमला तुम भीड़ का हिस्सा नहीं भीड़ में एक बनोएक विशिष्ट पहचान बनाने की तमन्ना उन्होंने न जाने क्यों मेरे प्रति संजोयी थी। कोई उनका अधूरा ख्वाब था जो मुझमें पूरा होता देखना चाहते थे या मुझमें उन्होंने कुछ ऐसा देखा तभी संस्कारों के वो बीज मन में बो दिए थें जिसका पुष्पन और पल्लवन विवाह के बाद पति के सान्निध्य और परिवार के सहयोग से पूरा हुआ। कुल मिलाकर काम की प्यास वाली जमीन पर विचारों की पहली फस जीनूभाई ने दी और सुप्त पड़ा बीज कुनमुनाकर जाग्रत हो गया। इसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पहला चुनाव मैं आसानी से जीत गई और सलूम्बर नगर पालिका की पार्षद बन राजनैतिक सफर का पहला डग भरा। राजनीति में आने का सबसे बड़ा व्यक्तिगत फायदा मुझे ये हुआ कि मैं विस्तृत समाज से जुड़ी। जन-समस्याओं, जन-अवधारणाओं, उनकी जीवनयापन शैली, पिछड़ापन और बदहाली ने मेरे अन्तरमन को हिलाकर रख दिया। मेरी समूची सोच बदल चुकी थी। दृष्टि, सोच में व्यापक परिवर्तन और अनुभव का विस्तार साहित्य में प्रस्फुटित होने लगा और राजनीति क्षेत्र में मशाल बन आगे चलने लगा।     ‘‘सलूम्बर का इतिहास’’ पुस्तक मेरे छः वर्ष के शोध, अध्ययन और अन्वेषण का एक परिणाम थी। सलूम्बर यानि एक कस्बे के इतिहास, भूगोल, कला, संस्कृति और स्थापत्य को पुस्तक रूप देकर कई सालों के लिए सुरक्षित कर लेना। वीरांगना हाड़ीरानी के बलिदान की पृष्ठभूमि से जुड़े इस लिखित इतिहास के कारण ही यहां के जनसमुदाय में अपनी विरासत धरोहर के प्रति चैतन्यता आयी। सलूम्बर को पर्यटन से जोड़ने का एक दिवास्वप्न जो मैंने इस पुस्तक के लोकार्पण के समय राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबसिंह शक्तावत के समक्ष बयान किया था वह व्यापक समाज का सपना बनने लगा। हाड़ीरानी और रतनसिंह चूंडावत की प्रतिमा स्थापना, राजमहलों का जीर्णोद्धार, संग्रहालय कक्ष, दरवाजों की मरम्मत मेरे इस रचनात्मक कार्य की ही देन थी कि इससे इस क्षेत्र का समूचा जनमानस जाग्रत हुआ। सलूम्बर का इतिहास इस क्षेत्र को मेरी कलम की अनमोल देन है। ‘‘युग युगीन सलूम्बर’’नाम से 2014 में मैंने सलूम्बर के इतिहास व भूगोल, कला व संस्कृति को समाहित कर वृतचित्र अर्थात डाक्यूमेंटरी मूवी बनाकर 20 सितंबर को पांचवें राष्ट्रीय बाल-साहित्यकार सम्मेलन में इसका प्रदर्शन किया। दुर्लभ चित्रावली, गीत व दृश्यों को समाहित किए इस मूवी को भरपूर सराहना मिली। कलम की ताकत बढ़ाते पाठकों के वे स्नेह भरे पत्र भी रहे जो इन दिनों मुझे विभिन्न स्थानीय, राज्य व राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में लिखे मेरे फुटकर लेखन के प्रकाशन के बाद मिलते थे। रोजाना मिलने वाले पाठकों के ये प्रशंसा पत्र निरंतर मेरा उत्साहवर्द्धन कर रहे थे। इसी बीच मैं कोटा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता व जनसंचार में स्नातक कर चुकी थी। कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी (हरियाणा) से मैंने लेख रचना व कहानी कला का प्रशिक्षण भी पत्राचार से लिया। इसी दौरान दो महत्वपूर्ण काम हुए जिनका जिक्र मैं यहां करना चाहूंगी- एक तो सलिला मंचकी स्थापना और दूसरा इल्ली और नानीबाल उपन्यास का लेखन व प्रकाशन।  लेखन अभिव्यक्ति के कारण ही मैं उदयपुर आकाशवाणी और उदयपुर की साहित्यिक संस्था युगधाराके सम्पर्क में आयी। युगधारा के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. जयप्रकाश पंड्या ज्योतिपुंजसे मेरा पहला परिचय उदयपुर आकाशवाणी रिकार्डिंग पर जाने के कारण हुआ। वे वहां कार्यक्रम अधिशासी थे और हिन्दी, राजस्थानी के प्रख्यात कवि थे। डॉ॰ ज्योतिपुंज से मेरा परिचय ही आगे चलकर सलूम्बर शब्दशिल्पियों को जोड़कर सलिला मंच की स्थापना की ठोस रचनात्मक परिणति में बदला। सलूम्बर इतिहास के पुस्तक लोकार्पण से पूर्व सलूम्बर की एकमात्र साहित्यिक एवं वैचारिक अभिव्यक्ति मंच सलिला मंचका अभ्युदय हो चुकी था। आज सलिला मंच अपने रजिस्ट्रेशन के बाद सलिला संस्था बन 20 वर्ष से निरन्तर साहित्य अभिव्यक्ति एवं उन्नयन में अग्रसर है। कई महत्त्वपूर्ण आयोजनों का संयोजन, स्मारिका प्रकाशन, साहित्यकारों के सम्मान, बाल साहित्य कृतियों के पुरस्कार, पुस्तक प्रदर्शनी, कवि सम्मेलन, के बाद सलिला संस्था समूचे देश के बालसाहित्यकारों के मिलन स्थल बन गया। एक कस्बे की संस्था एक क्षेत्र की न रहकर पूरे राष्ट्र की हो गई। 2014 में इसके बीस साल का सफर ‘‘सफरनामा सलिला संस्था का’’ वृतचित्र के रूप में बनाकर मैंने इसे इंटरनेट के माध्यम से विश्व समुदाय के समक्ष रख दिया है। दूसरी बात ‘‘इल्ली और नानी’’ पुरस्कृत बाल उपन्यास से जुड़ी हुई है। लेखन द्वंद क्या होता है, बाहरी व आन्तरिक जगत का? इस उपन्यास का जन्म मेरे मस्तिष्क में सांय पांच बजे होता है। यह वो समय होता था जब मुझे रसोई में जाना होता था। चूंकि एक तानाबाना मेरे मस्तिष्क में जन्म ले चुका था। इसके साथ ही इल्ली और नानी की कहानी मेरी कल्पना में उड़ान भरने लगी। कुछ पल मैं ठिठकी क्या करूं। इतने में कल्पना का अंधड़ दिमाग में चलने लगा। सृजन के इस सैलाब को कागज पर उतार लेने की बैचेनी ने मुझे पेन पकड़ने के लिए मजबूर कर दिया। अगर अभी इसी समय मैंने इन विचारों को नहीं बांधा तो कमरे से बाहर निकलते ही ये महत्त्वपूर्ण रचना तिरोहित हो जायेगी। ये प्रवाह बिखरकर थम जायेगा। मैं लिखती गई। एक के बाद एक कागज पर शब्द उतरते गये। समय का भान ही न रहा। जब घड़ी देखी तो साढ़े सात बज चुके थे। ईल्ली और नानी मेरा प्रथम, जीव-जगत पर आधारित विज्ञान बाल उपन्यास कागज पर आ चुका था पहली ड्राफ्ट के रूप में। बाद में इसके दो भाग लिखे गये व प्रकाशित हुए। कल्पना की रूपरेखा इतनी सघन थी कि उस समय इसके 13 भाग और लिखे जा सकते थे। किन्तु फिर कभी भी सोच कर जो मैंने इसे एक बार टाल दिया तो वह फिर कभी नहीं आया। स्वयं को दिये इस मीठे छलावे से लिखने के अभाव में एक अच्छी थीम काल कवलित हो गई। मजेदार बात यह भी रही कि इसके चित्र मैंने खुद कम्प्यूटर पर बनाये। इसके लिए बहुत मेहनत की मैंने। खैर! इस लेखन द्वंद्व का दूसरा पहलू यह भी रहा कि उस दिन मैं करीब साढ़े आठ बजे नीचे रसोई में खाना लेने पहुंची। मुझे विश्वास था कि अब तक खाना बन गया होगा और सबने खा लिया होगा। बिना बत्ती जलाये मैं अपनी थाली लगाने लगी। देखती क्या हूं सासूमां चौखट पर यह कहती हुई आ खड़ी हुई- ‘‘क्या भूख नहीं लगी अभी तक? मेरे हाथ में एक थाली देख कहने लगी मैंने खाना नहीं खाया है। कबसे तुम्हारा इंतजार कर रही हूं।’’ उस वक्त जो मेरी हालत हुई होगी उसके बारे में सोचा जा सकता है।  सृजन से पूर्व मानस पटल पर वेग उफनता है तब उसे उसी पल पकड़ना होता है, लिखना होता है वरना फिर वो गुम जाता हैं। कोई कहानी, कविता, रचना कैसे जन्म लेती है इसी बारे में मैं खुद भी नहीं जानती कि वो कौनसा पल होगा। ये मन के भीतर एक ऐसी आन्तरिक प्रक्रिया है इसे मैं इस बात से भी आगे बढ़ाती हूं कि मन की हजार-हजार आंखें होती है और मन हजार घोड़े पर सवार होता है। खाना बनाते, झाड़ू बुहारते, यात्रा करते, बात करते, पढ़ते, सोते, बाथरूम के एकान्त में कभी भी मन भीतर की ओर उन्मुख हुआ कोई पात्र, कोई आकृति, कोई शब्द, कोई दृश्य अंगड़ाई लेता बीज प्रस्फुटन की तरह चटकने लगता है। विचारों की आंच पर सिकने लगता है। ख्याल उन्हें उलटने पलटने लगते है तब बुद्धि-चातुर्य उसे कसौटी पर परखने लगता है। बुना हुआ वृत्त बड़ा होता दौड़ने लगता है सरपट। लेखकीय दृष्टि उसे पकड़ने का प्रयास करती है। पुनः पुनः उसके उद्भव को पाने पीछे लौटती बुद्धि याद करने की कोशिश करती है और कल्पना आगे कई दिशाओं में चौकड़ी भर रही होती हैं। तब मुश्किल होता है शुरूआत को पकड़ना। मेरा लेखक मन आरंभ को दोहराने लगता है। कागज पर अंकित होते अक्षरों को समीक्षात्मक दिमाग जांचने परखने और सुझाने लगता है। कैसे ठीक रहेगा? क्या होना चाहिए? शब्दों का अनूठापन, बिम्ब व प्रस्तुति की नवीनता, नाटकीय अंदाज जैसे कलात्मक पक्ष रचना को तराशते, पचाते जुगाली करते बढ़ते है। प्रारंभ के बाद धाराप्रवाह कागज पर लेखन का काम गति पकड़ लेता है। यह समय गहरी एकाग्रता का होता है। रचाव के इन पलों में बाह्य-जगत से नाता टूट चुका होता है। गहरे ध्यान की अवस्था जैसा। ध्यान में तो व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है  किन्तु इस लेखन ध्यान में तो कल्पना का बीज प्रस्फुटित होता आकार लेता हुआ कागज पर शब्दों के माध्यम से आकार, उम्र, असर सब कुछ लेकर आता है जो प्रकाशन के बाद व्यापक फलक में कई पाठकों तक पहुंचता है स्थूल रूप में। भाव की संप्रेषणीयता लिए हुए। जो फिर से किसी पाठक के मन मेंअपना  प्रभाव पैदा करता है- अच्छा, बहुत अच्छा, बुरा या साधारण। ये लेखन ध्यान और उसमें विचारों का जन्म कैसे हो? इसके लिए कोई नियम नहीं कोई फिनोमिना नहीं कोई व्यवस्था नहीं। कई बार पर्याप्त समय, मन होता है एक अच्छी रचना लिखने के लिए पर कुछ सूझता ही नहीं । कुछ जंचता ही नहीं। कुछ पकता ही नहीं। मन संकल्पित होता है पर कल्पना पटल शून्य होता है। लाख कोशिश करने के बाद भी कोई विचार अपने पूरे पंख नहीं खोल पाता। एक के बाद एक विचार को जबरन एकत्रित कर सृजन की लाख चेष्टा और जतन करने के बावजूद भी वेग प्रबल नहीं होता और विचार काल कवलित हो जाता है। तब बहुत छटपटाहट होती है। चिडचिड़ापन आ जाता है। अनमनापन लिए कुछ अच्छा नहीं लगता ऐसा भी होता है और ये स्थिति किसी को समझाई नहीं जा सकती कि मन उदास क्यों है? सृजन खुशियां देता है। इस खुशी को पाने के लिए रचाव अनिवार्य हो जाता है। इसके लिए कल्पना लोक के सेतु से जुड़ना होता है और  उसके लिए एकाग्रता आवश्यक है। फिर एकसी लय या तन्द्रा में बहना या रहना होता है। लय छूटा या तन्द्रा टूटी तो सब टूटा। उस रिदम में पात्रों को जीने, संवाद करने, बतियाने जैसी प्रक्रियाएं चलती रहती है। सामाजिक स्तर पर बाहî दो क्षेत्रों से जुड़े होने के कारण मेरा अनुभव ग्रासरूट लेवल से प्रारंभ होकर भारत के विस्तृत भू-भाग तक फैलाव लिए हुए है। इंटरनेट के माध्यम से वैश्विक गतिविधियों पर भी मेरी नजर हैं। इस तरह स्वयं को तोलने और परखने का क्रम और जोखिम उठाने का हौंसला भी बना हुआ है। साहित्यिक मित्र, साहित्यिक यात्राएं, साहित्य समारोह की भागीदारी ने लेखन प्रकाशन की साझेदारी का एक बड़ा कैनवास दिया है।  एक बहुत बड़ा काम वर्ष 2013 में हुआ- मधुमती, राजस्थान साहित्य अकादमी से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका के बाल साहित्य विशेषांक के रूप में। राजस्थान के महिला बाल साहित्यकारों को लेकर 2013 में ही एक लेख मधुमती के लिए लिखा था, मात्र छः दिनों की खोज और जांच-पड़ताल के बाद एक बारगी तो इस विषय पर मैंने लिखने से रेणु शाह को मना कर दिया था। वे उस समय मधुमती के जनवरी के महिला अंक विशेषांक की अतिथि संपादक थी। तब तक मैं यह समझती रही थी कि राजस्थान में महिला बालसाहित्यकार का नितान्त अभाव है। मेरे इस अल्प-ज्ञान पर जो सत्य उद्घाटित हुआ वह चौंकाने वाला था। राजस्थान के प्रत्येक क्षेत्र में एक नहीं कई-कई महिला बाल साहित्यकारों का किया काम सामने आया। जिसके परिणामस्वरूप राजस्थान साहित्य अकादमी की 17 वीं सरस्वती सभा की सदस्य होने के नाते मैंने अध्यक्ष वेदव्यास के सम्मुख मधुमती का नवम्बर अंक बाल साहित्य विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने का विचार रखा। मेरा सुझाव मान उन्होंने मुझे ही इस अंक का अतिथि संपादक बना दिया। मधुमती के किसी अंक का अतिथि संपादक बनना मेरे लिए गौरव की बात थी। उत्साहित हो मैं इस काम में जुट गई। मैंने अपने साहित्यिक मित्रों, विद्वज्जनों, संपादकों, प्रकाशकों से सम्पर्क साधा। संगरिया के गोविन्द शर्मा, भीलवाड़ा के डॉ. भैरूलाल गर्ग, श्रीगंगानगर के डॉ. कृष्णकुमार आशु, दिल्ली के रमेश तेलंग, अलमोड़ा के उदय किरोला, दिल्ली के प्रकाश मनु, जयपुर से नीलिमा टिक्कू, बीकानेर के बुलाकी शर्मा, दौसा के अंजीव अंजुम और भी साहित्यकारों व प्रकाशको से मेरी फोनिक बात हुई। एक पूरा कलेवर मेरी कल्पना में झिलमिलाने लगा। अजमेर के मनोहर वर्मा के अतिथि संपादन में करीब 20-25 वर्ष पहले मधुमती का बाल साहित्य विशेषांक का अंक निकला था। उसे खंगाला तो पता चला कि वह भारतीय भाषाओं को लेकर था। मैंने मनोहर वर्मा से भी सम्पर्क साधा। अपनी तैयार परिकल्पना के आधार पर इसका कलेवर तैयार करने हेतु कई बालसाहित्यकार अपने अपने विषय अनुरूप शोध अध्ययन में लग गये। बाल साहित्य का यह विशेषांक सबकी बेहतरीन और बारीक मेहनत से तैयार हुआ टंकित सामने था आखिरी जांच के लिए। इसी समय राजस्थान में चुनावी आचार संहिता लगी हुई थी। तैयार अंक अध्यक्ष की स्वीकृति व संपादकीय का इंतजार करता लम्बित हो रहा था। चुनाव हुए व नई सरकार बनी। अध्यक्ष अप्रभावी हुआ और मधुमती का यह तैयार अंक खटाई में पड़ गया। देश व राजस्थान के चुनिंदा साहित्यकारों ने इसे सम्पूर्णता देने के लिए बहुत श्रम किया था। इसका यह हश्र देखकर मन दुखी था। खैर! इस दुखद स्थिति का अंत हुआ। कई कटौतिया सहता यह अंक प्रकाशित हुआ। इसका साहित्य जगत में भरपूर स्वागत हुआ। सराहना मिली और जो कुछ काटा गया उससे से लोगों की निराशा भरे उलाहने भी मिले। खुशी में डूबे हुए मैंने इस अंक की 100 प्रतियां खरीद ली। साहित्यप्रेमियों और शोधार्थियों में बांटने के लिए।       मधुमती का संपादन और सरस्वती सभा की सदस्य बनना मेरे अनुभव  क्षेत्र का विस्तार  हुआ। नजदीक से मैंने प्रक्रिया को देखा, समझा व जाना तमाम अच्छाईयों व बुराइयों को। जयपुर आकाशवाणी से प्रसारित हुए नाटक ‘‘यही सच है’’ के प्रसारण ने सिखाया की काम की कभी कोई सीमा नहीं होती,वह असीम है। बस जरूरतभर है पंख फैलाकर उड़ने का हौसला व अपने अन्दर की ताकत को पहचानना और अंजाम तक ले जाने का जज्बा। मैं हैरान तो उस समय भी होती हूं जब द संडे इंडियन पत्रिका सितंबर 2011 के अंक में विश्व की 111 श्रेष्ठ हिन्दी लेखिकाओं का विशेषांक प्रकाशित किया। इस सर्वे रिर्पोट में राजस्थान की 9 रचनाकारों के परिचय में मेरा नाम छायाचित्र के साथ सबसे उपर था। यह अवसर हो या उज्जैन के मौनतीर्थ स्थल पर विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि का भव्य आयोजन में मिलना। जहां मैंने इस मर्म को जाना श्रीकृष्ण ने जो गीता में कहा कर्म करो फल की इच्छा मत रखों। फल अपने आप पीछे-पीछे चला आता है की सुखद अनुभूति हुई। साथ चले,यह भी बताती चलू कि अपने इस जीवन काल में मैंने पी.एच.डी. करने के तीन असफल प्रयास किए,परन्तु किन्हीं न किन्हीं कारणों भरपूर चेष्टा के बाद भी वे अंजाम तक नहीं पहुंच पाये। मैंने कभी सोचा नहीं था वो सब हुआ। राजनैतिक परिदृश्य में चार चुनाव लडूंगी और जनप्रतिनिधि बनूँगी  ऐसा ख्वाब देखा ही नहीं था। नगर और गांव की राजनैतिक सरोकार ने काम करने का एक महत्त्वपूर्ण प्लेटफार्म मिला जो बहुत कम लेखकों के पास होता है। कल्पना और लेखन जगत के किरदार को रचना में च्छित चरमोत्कर्ष  दिया जा सकता है किन्तु यथार्थ में करने का अवसर राजनीति का धरातल देता है। पद से जुड़ी कलम की ताकत के बूते ही कल्पना को यर्थाथ में बदला जा सकता है। एक गरीब मां के बेटे को टेन्ट व्यवसायी में बदलना हो या चिन्हित सूखे तालाबों की मरम्मत का कार्य, जलसंरक्षण व पर्यावरण को मूर्त रूप हो या ऐतिहासिक विरासत के प्रति पुनर्जागरण का काम हो या पुस्तकालय-भवन, सभा-भवन के निर्माण कार्यों को अंजाम दिलाना यह सब जनप्रतिनिधि रहते हुए ही असली जामा पहनाना संभव हुआ। ब्रिटिश कौसिंल, दिल्ली में हुए सेमीनार में राजस्थान का प्रतिनिधि बनकर भाग लेना यह बताते मुझे खुशी हो रही है।  यह खुशी भी उसी तरह की है जब मेरा पहला कहानी संग्रह औरत का सचका प्रकाशन हुआ पर कहीं मन निराश हुआ। प्रशंसा तो मिली पर खुद का प्रकाशन होने से पुस्तकों का व्यापक प्रसार नहीं हुआ। इसके बाद दूसरा कहानी संग्रह थोड़ी सी जगहव तीसरा सिंदूरी पलजयपुर से प्रकाशित हुए। सत री सैनाणीऔर इसी का हिन्दी अनुवाद मां! तुझे सलामनाटक का प्रकाशन हुआ और अंग्रेजी अनुवाद भी। आभासिंधी उपन्यास का राजस्थानी अनुवाद भी आया। आजादी की डायरीइतिहास आधारित तीन वर्ष का काम संपादित पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया। इन सबमें चुनौतीपूर्ण होता है शोधपत्रों का लेखन। पता नहीं क्यों कही-अनकही चुनौतियों को स्वीकारना और उन्हें अंजाम तक पहुंचाने तक लक्ष्य-भेद जैसी एकाग्रता से जी-जान से जुट जाना मेरे स्वभाव में है शायद तभी मैं अब तक 25 से अधिक इतिहास व साहित्य विषयक शोधपत्रों का लेखन व वाचन कर चुकी हूं। कई प्रकाशित भी हुए है और पूरे मनोयोग से किए गये मेरे इन शोधपत्रों की सराहना भी हुई और स्थापितों में स्थान भी दिलाया।  20 वर्ष से साहित्यिक आयोजन, 5 वर्ष से सलिल प्रवाहस्मारिका प्रकाशन, 5 राष्ट्रीय बाल साहित्यकारों का सम्मेलन, बच्चों की लेखन-कार्यशालाएं, 7 दिवसीय साहित्य आयोजन, पुस्तक प्रकाशन में बाल-साहित्य को लेकर कुल 11 पुस्तकों का प्रकाशन, स्काउट व गाईड के उपप्रधान रूप में संस्कार रोपण के लिए बच्चों से जुड़ना, नव साक्षरों पर काम करना, पत्रकारिता विषय को लेकर गेस्ट लेक्चरार के रूप में स्नातकों को पढ़ाना, दिल्ली समूह की की पत्रिका सरिता के लिए उदयपुर व माऊंट आबू पर्यटन पर लगातार लिखना, आकाशवाणी से कहानियों का प्रसारण, मुझे संतुष्ट करता है।  नेशनल बुक ट्रस्ट से पहले सितारों से आगे किशोर उपन्यास और फिर चित्रमय रंगीन किस हाल में मिलोगे दोस्तवर्ष 2014 में बाल पुस्तक का प्रकाशन यह भी मेरे लिए अकल्पनीय था,पर ऐसा हुआ। 
     मार्च 2013 बाल साहित्य की नौंवीं पुस्तक अणमोल भेंटको राजस्थान की राजस्थानी भाषा अकादमी का बालसाहित्य पुरस्कार मिला और अब इसी पुस्तक को साहित्य अकादमी का।  बाल कहानी लिखना मेरे लिए हमेशा चुटकी का खेल रहा। मुझे याद है कि एक रात में मैंने 3 से 4 बाल कहानी तक लिखी है। एक से बढ़कर एक सुन्दर, विविध, रोचक और नवीन।  कई बार लगता है मैं कहानी में जीती हूं। मन के कोने में कहीं एक नन्ही बैठी बालिका है। जिसकी कल्पना शक्ति असीम है। जिस दिन कल्पना के पंख लग जाते है उड़ान है कि थमने का नाम ही नहीं लेती। अणमोल भेंट की सभी कहानियों को मैंने मात्र 20-25 दिन में लिख ली थी और उस समय यह गिनती शायद 40-45 पर जाकर थमती अगर रूकावट नहीं आती। यदि लय भंग नहीं होता तो बहुत-सी कहानियां जन्म लेती जो उस समय जेहन में कुनमुना रही थी- बाहर, कागज पर आने के लिए। काश! मैं उनकी कच्ची ड्राफ्ट बनाकर सहेज पाती। पर ऐसा नहीं हो पाया। समय के दबाव व राजनैतिक पद से जुड़ी गतिविधियों की व्यस्तताओं के चलते कई रचनाएं मूर्त रूप नहीं ले पाती। सच कहूं तो मेरा लेखन सदैव ऊबड़-खाबड़ ही रही है। कभी लगातार लिखना तो कभी महीना दो महीना की लम्बी चुप्पी। पर सजृन कभी खामोश रहा है क्या? वह गतिविधियों में बोलने लगता है.....   कभी-कभी लेखन के लिए मुझे भूमिगत भी होना पड़ता है। सभी से कटकर अपनी ही दुनिया में, लयबद्ध, एक ही तन्द्रा में। जब-जब ऐसा हुआ बहुत श्रेष्ठ साहित्य का रचाव हुआ। अणमोल भेंटउसी अवस्था की देन है। इसमें 11 बाल कथाओं का संग्रह है। इसकी 10वीं कहानी कठफूतली री मानबच्चों को ही नहीं बड़ों को भी गुदगुदाती है। सहज शब्दों में अनुप्रास की छटा और ध्वनि का कुशल प्रयोग बालमन को आनंद देता है। इसके मोहपाश में कथा का अभीष् संदेश कब काम कर जाता है इसका भान ही नहीं होता। मैं जहां तक अपने लेखन का विश्लेषण करती हूं तो यह पाती हूं कि जब भी मन के कोने वाली बालिका भीतर बैठी प्रौढ़ा पर हावी हो जाती है तो बहुत शानदार कलेवर के साथ वैविध्यपूर्ण रचाव चमत्कृत करता है। बुद्धि कौशल बाल रचना को समझ तो देता है पर उतनी गहराई नहीं दे पाता। तभी हमारे विद्वानों ने स्वीकारा है बाल-लेखन के लिए बच्चा बनना पड़ता है। उस उम्र को पुनः जीना होता है।   
भारत के विभिन्न स्थलों के भ्रमण ने चक्षुओं की लिप्सा को पूरी करते हुए कलम की स्याही को वैविध्य रंग भी प्रदान किये है। कारगिल की टाईगर हिल, समुद्र तल से सबसे ऊंची जगह जोर्जिला पोईंट व बटालिका की भारतीय सेना से 15 अगस्त के दिन मिलन, द्रास का शहीद स्मारक, सांची के स्तूप, कोर्णाक का सूर्य मंदिर, चिलका झील की सैर, मुन्नार के चाय बागान और झरनों का जलप्रपात, उत्तर से लेकर दक्षिण के प्राचीन मंदिर, गर्म पानी के चश्में, चारो धाम का तीर्थांटन, वैष्णों देवी की पैदल यात्रा, कन्या कुमारी से तीनों सागर के हरे, नीले, काले पानी को निहारना, जैसलमेर का सम के टीले और हवेलिया, गोवा के बीच और प्राचीन चर्च, विशाल बन्दरगाह, फतेपुर सिकरी की दरगाह, जलगांव का गांधतीर्थ, साबरमती का गांधी आश्रम, दिल्ली की मेट्रो और मुम्बई की लोकल टेª, कलकत्ता का विक्टोरिया टर्निमल, बेलूर मठ और दक्षिणेश्वर, ऊंटी की टोय ट्रेन, शिमला के रिसोर्ट, केदारनाथ की खच्चर की सवारी, अजंता ऐलोरा की गुफाएं, कोच्ची का फिश मार्केट, लाल किला और उसका मीना बाजार, गेटवे ऑफ इंडिया, नई जलपई गुड़ी का विराम और नक्सली दंगे, बैलगाड़ी से लेकर हवाई जहाज तक का सफरकितना कुछ यादों की धरोहर में समेटा हुआ बेचैन है कागज पर उतर जाने के लिए। आज भी भीतर बहुत कुछ करने की तमन्ना है। निरंतर, नया, अनूठा, अकल्पनीय करने की चाह इतनी प्रबल है कि दिन के 24 घंटे भी छोटे लगने लगते है। जीवटता भरे इन 25 वर्षों में मुझे भरपूर प्यार, सम्मान, पुरस्कार व लोकप्रियता मिली। जीवन ऊर्जा और जिजीविषा बनी रहे प्रभु से यही विनती है।  साहित्य अकादमी, राजस्थान की हिन्दी व राजस्थानी दोनों भाषाओं की साहित्य अकादमी, अपने घर परिवारजन और पति जगदीश भंडारी से मिली अपार सराहना, सहयोग, पाठकों की प्रशंसा ने मुझे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। जहां मैं गर्व से कह सकती हूं कि हां मैं जनसेवी हूं, साहित्यकार हूं, कहानीकार हूं, पर पहले बालकहानीकार हूं.....और भी कई पदों पर रहते हुए निरंतर सक्रिय हूं। वर्तमान में खूब मेहनत कर रही हूं।                        
जय हिन्द
डॉ. विमला भंडारी
भंडारी सदन,
 पैलेस रोड,
 सलूम्बर-313027
जि. उदयपुर-राज.
सम्पर्क: 9414759359



















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